रंगों और रेखाओं का सांस्कृतिक विन्यास – ‘रंगोली’

हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति की परंपरागत लोक-कला की अनेक धरोहरों में से एक धरोहर है रंगोली’, जो अल्पनाके नाम से भी जानी जाती है। यह युगों से सांस्कृतिक आस्थाओं का प्रतीक रही है। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा सभ्यता में भी रंगोली के प्राचीन रूप के दर्शन होते हैं। हमारे पुराणों में रंगोली से संबंधित अनेक कथाएं मिलती हैं। विद्वानों के अनुसार, चित्रकला पर पहला भारतीय ग्रंथ चित्र लक्षणहै, जिसमें रंगोली के आदी सूत्र मिलते हैं।

एक पौराणिक कथा के अनुसार, ब्रह्मा जी ने रचना करने के आवेग में आम के पेड़ का रस निकाल कर उस रस से धरती पर एक सुंदर नारी का रेखाचित्र बनाया। यह अनिंद्य रूपवती स्त्री आगे चलकर उर्वशी के नाम से जानी गई। मान्यता के अनुसार, ब्रह्मा द्वारा खींची गई यह आकृति ही रंगोली का प्रथम रूप है। रंगोली के संदर्भ में वैसे एक और कथा का उल्लेख आता है। कथा यह है कि एक राजा था, जिसके पुरोहित के बेटे की अकाल मृत्यु हो गई थी। राजा और पुरोहित उसकी असमय मौत से बहुत दुखी हुए। तब ब्रह्मा जी ने राजा से कहा कि वह पुरोहित के बेटे का रेखाचित्र भूमि पर खींचे ताकि उसमें वे प्राण फूंक सकें। राजा ने ब्रह्मा जीके आदेशानुसार जमीन पर रेखाएं खींचते हुए यथासंभव लडक़े की आकृति उकेरी। कहते हैं, इसी घटना से रंगोली बनाने की शुरुआत हुई।  

इनके अतिरिक्त रंगोली को लेकर कुछ अन्य पौराणिक संकेत भी मिलते हैं। रामायण में जिस स्थान पर सीता के विवाह मंडप की चर्चा की गई है, उसमें रंगोली का जिक्र आता है। कुछ विद्वानों के अनुसार, दक्षिण में रंगोली का सांस्कृतिक विकास चोल शासकों के युग में हुआ। तमिलनाडु के एक मिथक के अनुसार, मारकाड़ी के महीने में देवी आंडाल ने देव तिरुमाल से विवाह की विनती की और कठिन तपस्या के उपरांत वह देव तिरुमाल से एकाकार हो गई। तब से मारकाड़ी के महीने में कुंवारी कन्याएं सूर्योदय से पहले भोर काल में उठकर देव तिरुमाल की आराधना करती हैं और उन्हें प्रसन्न करने के लिए रंगोली बनाती हैं।

भारत के लगभग सभी प्रांतों में रंगोली बनाने का रिवाज है। भले ही रंगोली बनाने की शैली और प्रकार भिन्न हों, पर इसे श्रद्धापूर्वक बड़े चाव से बनाने के पीछे जो मंगल भावना है, वह हर जगह समान है। महाराष्ट्र और गुजरात में प्रतिदिन मुख्य द्वार पर रंगोली बनाना बहुत शुभ और मांगलिक माना जाता है। जिन घरों में आंगन और बरामदे होते हैं, वहां आंगन के केंद्र में गोलाकार और बरामदों के किनारों पर सुंदर बेल-बूटे से रंगोली काढ़ी जाती है। गहराई से सोचा जाए तो यह हमारी कलात्मकता, आंतरिक हर्षोल्लास की भावना की रंगमय अभिव्यक्ति है।

कहा जाता है कि आधुनिक बंगाली लोक-कलाका मूल और कमल आदि बनाने की परंपरा मोहनजोदड़ो की कला में निहित है। अवनींद्रनाथ टैगोर ने शांति निकेतन के कला भवन में रंगोली की कला को अन्य कलात्मक विषयों के साथ एक अनिवार्य विषय के रूप में स्थान दिया। बिहार प्रांत में छोटे-बड़े सभी त्योहारों, विवाह, जन्म आदि अवसरों पर घर की दीवारों और आंगन में बहुत सुंदर लोक चित्रकारी की जाती है। विवाह के अवसर पर दूल्हा-दुल्हिन के कमरे में दीवारों पर विशेष रूप से चित्रकला की बारीकियों के प्रतिमान कोहबरऔर नैना जोगिनजैसे चित्र उकेरे जाते हैं, जो कहा जाता है कि तंत्रपर आधारित होते हैं। अनेक प्रांतों में गांवों में आंगन को बुहारकर, गोबर से लीप कर रंगोली बनाई जाती है। गांव वालों की भी आस्था है कि गोबर लेपने से घर शुद्ध और कीटाणु रहित तो हो ही जाता है, रंगोली बनाने से घर सुंदर लगता है और घर में खुशहाली आती है।

रंगोली देवालयों से लेकर घरों तक नियमित बड़े उत्साह और आदर भाव के साथ बनाई जाती है। हमारे पूर्वजों का विश्वास था कि देवी, देवताओं, सूरज, चांद, सितारों, फूलों, पेड़, पौधों के उकेरे गए चित्र जीवन में सुख-शांति और धन-धान्य लाने वाले होते हैं, फसल अच्छी होती है और प्रेतात्माओं के प्रभाव से बचा जा सकता है। यही कारण था कि इस भावना के तहत रंगोली प्रतिदिन बनाने के अतिरिक्त जन्म, विवाह आदि मांगलिक अवसरों व त्योहारों आदि पर बनाने की परंपरा रही है। घर में हवन करते समय वेदीके चारों ओर आटे, हल्दी, कुमकुम और रोली आदि से रंगोली खींच दी जाती है। पूजा की चौकी, देवी-देवता का आसन, दीप-स्तंभ के आधार पर भी रंगोली सजाई जाती रही है। इस सबके पीछे उत्सवधर्मिता का भाव झलकता है। रंगोली के लिए खास शुभ मानी जाने वाली वस्तुओं के चित्रण का ध्यान रखा जाता है। हमारे पूर्वज कुछ खास वस्तुओं के चित्रण को अपरिहार्य मानते थे। रंगोली उनके बिना रंगोली नहीं होती थी। ये शुभ चीजें हैं मंगल-कलश, कमल का फूल, आम, आम के पत्ते,  सूरज, चांद, सितारे, मोर, हंस, तोते, चिडिय़ां, मछलियां, बेल बूटे, मानव आकृतियां, आदि। रक्षा-बंधन, दीपावली और दशहरा आदि पर जलते हुए दीपक, गणेश और उनके प्रिय लड्डुओं से भरा पात्र, लक्ष्मी जी और लक्ष्मी जी के पद-चिन्ह, सोने-चांदी के सिक्के, स्वस्तिक, कलात्मक फूल-पत्तियां आदि भी बनाई जाती हैं। रंगोली बनाने में जिन सामग्रियों का प्रयोग होता था वे हैं पिसा हुआ सूखा चावल, गेहंू का आटा, रोली, हल्दी, कुंकुम, सुखाए हुए पत्तों का पाउडर, लकड़ी का बुरादा, चारकोल, जलाई हुई मिट्टी आदि। यदि गीली रंगोली बनानी होती थी, तो भिगो कर पिसे हुए चावल के गाढ़े घोल (जिसे एपनकहा जाता है) और गेरू (पानी में घिस कर बना लाल गीला रंग) का प्रयोग होता है। इस प्रकार रंगोली की रचना सूखी और गीली दोनों तरह की होती है। हमारी नानी-दादी गीले पिसे चावल, हल्दी और गेरू के घोल से दशहरा-दीवाली आदि पर चित्र बनाया करती थीं। इसके अतिरिक्त सिंदूर, रोली, हल्दी, सूखा आटा आदि से सूखी रंगोली बनाती थीं। आज भी इन्हीं दोनों तरह की पारंपरिक रंगोली बनाई जाती है। कुछ लोग पहले खडिय़ा से जमीन पर डिजाइन बना लेते हैं, फिर उनमें रंग भरते हैं जबकि कुछ सिद्धहस्त कलाकार लड़कियां सीधे रंगों से अल्पना बनाती हैं। रंगोली में चावल और गेहूं के आटे के प्रयोग को लेकर यह मान्यता है कि चींटी को अन्न खिलाना पुण्य का कार्य होता है । एक धारणा यह भी है कि कोलम के बहाने धरती के अन्य प्राणियों को भोजन मिलता है, जिससे प्राकृतिक चक्र की रक्षा होती है।  

अब रंगोली घर-आंगन से निकल विद्यालयों, पर्यटन विभाग, होटलों आदि में सजाई जाने लगी है। स्कूलों में पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी के दिन छात्राएं झंडारोहण के आधार के चारों ओर तथा भवन के बरामदों में सूखी-गीली खडिय़ा से रंगोली बनाती हैं। हिंदी-दिवस आदि पर ब्लैक बोर्ड पर सुंदर चित्रकारी की जाती है। दरवाजे पर अद्र्धचंद्राकार आकार में अल्पना बनाई जाती है। रंगोली में वर्तुल, ज्यामितीय आकार, देवी-देवताओं की आकृतियां, भारतीय पुष्प कमल का फूल, स्वस्तिक, लक्ष्मी जी के पग विशेष रूप से बनाए जाते हैं। रंगोली को कभी भी झाडू से या बेतरतीबी से पैरों से नहीं समेटा जाता। इसे हटाने के लिए कपड़े और गत्ते के टुकड़े आदि का प्रयोग किया जाता है या फिर पानी से हटाया जाता है।

आजकल पानी पर भी रंगोली बनाई जाती है। इसके लिए प्लास्टिक टब या धातु के पात्र में पानी लिया जाता है। पानी पर चारकोल का बारीक चूर्ण बिछा दिया जाता है। चारकोल की इस परत पर रंग-बिरंगी रंगोली बनाई जाती है। कुछ लोग पानी पर चारकोल की जगह डिस्टेंपर या पिघले हुए मोम का भी प्रयोग करते हैं। कुछ रंगोलियां पानी के अंदर भी बनाई जाती हैं।

इसके लिए एक कम गहरे बर्तन, जैसे थाली, तश्तरी आदि में अच्छी तरह से तेल लगाकर रंगोली बनाई जाती है। बाद में रंगोली पर भी हल्का सा तेल स्प्रे करके धीरे से पानी के बर्तन की तली में रख दिया जाता है। इस प्रकार रंगोली मात्र रंगों की चित्रकारी ही नहीं, अपितु भारतीय संस्कृति की एक ऐसी खूबसूरत अभिव्यक्ति है, जिसमें रंगों और आकृतियों का अपना विशेष अर्थ है।

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