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तनाव से जूझता देश का भविष्य | निष्ठा भारद्वाज | The future of the country battling stress | Nishtha Bharadwaj

तनाव से जूझता देश का भविष्य

हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी में तनाव आज घुल मिल गया है। आज के युवा और बच्चे भी इससे अछूते नहीं रह गए है। इससे पहले कि हम तनाव के शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों और उसके उपायों के बारे में जाने पहले यह समझ लेते है कि आखिर तनाव है क्या? और क्या ये वाकई स्वाभाविक प्रक्रिया है?

मनोविज्ञान की भाषा में कहें तो तनाव किसी भी बदलाव के साथ सामंजस्य बिठाने के लिए शरीर द्वारा की गयी एक प्राकृतिक प्रतिक्रिया है। जब हम किसी खतरे या चुनौतीपूर्ण परिस्थिति का सामना करते हैं तो हमारे शरीर के भीतर कुछ रासायनिक परिवर्तन होते है जैसे कॉर्टिसोल, एड्रीनलीन, नोरएड्रीनलीन जैसे हार्मोन्स का स्राव होता है – जो हमें फाइट या फ्लाइट रेस्पॉन्स के लिए तैयार करता है यानी विपरीत परिस्थिति से भागने या फिर उसका सामना करने का साहस देता है। यही कारण है कि हृदय गति तेज हो जाती है, रक्तचाप बढ़ जाता है, पसीना आने लगता है और हम पहले से ज्यादा सतर्क हो जाते हैं। अब आप समझ ही गए होंगे कि छोटी से छोटी या बड़ी से बड़ी समस्याओं से निबटने के लिए तनाव होना स्वाभाविक है। पर यह तब समस्या का रूप ले लेता है जब हम प्रायः या लंबे समय तक तनाव में रहने लगते हैं। अगर तनाव लंबे समय तक रहे तो ये हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता को कम कर देता है। साथ ही हाई ब्लड प्रेशर, हाइपरटेंशन, पेट का अल्सर और मोटापे जैसी तमाम गंभीर समस्याओं को जन्म देता है।

लोगों में बढ़ते हुए तनाव की वजह हमारी जीवनशैली और बढ़ती हुई महत्वाकांक्षाएं हैं। हमने बच्चों पर भी सपनों का बहुत बोझ डाल कर उन्हें तनावग्रस्त रहने पर मजबूर कर दिया है। बच्चे सफल हुए तो वाह-वाह किन्तु असफलता के लिए कोई जगह नहीं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण बच्चों के मुकाबले शहरी बच्चों में मानसिक स्वास्थ्य की समस्याएं ज्यादा हैं। गांवों में जहां ६.९ प्रतिशत बच्चों में मानसिक समस्या है, वहीं शहरों में यह १३.५ प्रतिशत है।

वर्तमान के इस शहरीकरण के युग में हमारे रहने की जगहें ही सीमित नहीं हुईं वरन परिवार भी सीमित होते चले गए। पहले जॉइंट फैमिली हुआ करती थी, जहां बच्चों को माता-पिता के साथ-साथ दादा-दादी का भी प्यार-दुलार मिलता था। उनसे कहानियां सुनने को मिलती थी। बच्चे अपने मन की बात उनसे कहते। धीरे-धीरे परिवार सिमटते गए जॉइंट फैमिलीज टूट कर न्यूक्लियर फैमिली बन गईं। और अब उसकी जगह सिंगल पेरेंट्स ने ले ली है।

ऐसा नहीं है आज के युग में बच्चों में अपनी बातों को साझा करने की भूख खत्म हो गई है। बल्कि आज की पीढ़ी अधिक जिज्ञासु है। पर यहां माता-पिता या दादा-दादी की जगह मोबाइल फोन ने ले ली है। बच्चों को अपने सवालों के उत्तर गूगल से मिल जाते हैं। यही बच्चे जब बड़े होते हैं और इन्हें जिंदगी की कठिन परिस्थितियों से रूबरू होना पड़ता है। छोटी-छोटी परेशानियां उन्हें तोड़ देती हैं और कभी कभी ऐसे में वे आत्महत्या जैसा गलत कदम भी उठा लेते हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो २०१९ की रिपोर्ट की मानें तो भारत में हर घंटे करीब एक से दो २ विद्यार्थी आत्महत्या करता है। आखिर इसके लिए कौन जिम्मेदार है? बच्चों के परीक्षा परिणाम को उनकी योग्यता के साथ जोड़कर आखिर कब तक हम देखते रहेंगे।

माता-पिता को यह जानना आवश्यक है कि बच्चे की क्षमता क्या है? वह किस क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ दे सकता है? बच्चों के अंकों से उनकी क्षमता का आकलन करना ठीक नहीं। बच्चे तनाव मुक्त होंगे तभी खुलकर विकास कर पाएंगे। परीक्षा के दौर में बच्चों को स्नेह, दुलार और सहयोग की जरूरत होती है। बच्चों को तनाव मुक्त रखने के लिए विशेषज्ञों की राय लेना आवश्यक है। यदि बच्चा पढाई़ में कमजोर है तो माता-पिता ये विश्वास दिलायें कि पढाई़ के अलावा भी बहुत क्षेत्र हैं जिनमें वह अच्छा कर सकता है।

बच्चों को मानसिक तनाव से दूर रखने की जिम्मेदारी हम सबकी है। बच्चों पर ज्यादा अंक लाने का दबाव नहीं डाले। अपेक्षा के अनुरूप रिजल्‍ट न आने पर भी किसी टिप्पणी से बचें। अपने बच्चे के रिजल्ट की तुलना उसके दोस्तों या रिश्तेदारों के बच्चों से बिलकुल न करें। हर बच्चा अपने आप में यूनीक होता है और उसका टैलेंट और दिमाग दूसरे बच्चे से अलग होता है।

बच्चों में पढाई़ का दबाव कम करने के लिए दिल्ली सरकार द्वारा की गई पहल ‘हैप्पीनेस क्लास’ सराहनीय है। यहां बच्चों को कहानियों के माध्यम से और अन्य रुचिकर तरीकों से सिखाया पढाय़ा जाता है। माता पिता भी बच्चों के साथ घर पर नियमित रूप से योग प्राणायाम और ध्यान करने की आदत डालें। पेरेंट्स बच्चों के साथ अपना बहुमूल्य समय बिताएं और उनकी सुनें। ये बच्चों को शारीरिक मानसिक बल्कि भावनात्मक रूप से सुदृढ़ बनाएगा।

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 निष्ठा भारद्वाज

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