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सेवा की पुरातन परम्परा | इंदु विश्‍नोई | Ancient tradition of service | Indu Vishnoi

सेवा की पुरातन परम्परा(सुश्रुत)

यह कहानी भगवान बुद्ध के समय से भी २००० वर्ष पुरानी है। आयुर्वेदिक इतिहास के प्रतिष्ठित लेखक रत्नाकर शास्त्री ने खोजबीन करके यह सुंदर और हृदयग्राही ऐतिहासिक कथा हम तक पहुंचायी है। उनकी इस शोध पुस्तक का नाम है भारत के प्राणाचार्य

भारत में धन्वतरी दिवोदास का नाम जाना पहचाना है। हर साल दीवाली के दो दिन पूर्व धनतेरस के नाम से धन्वतरी की पूजा होती है। धन्वतरी हैं आरोग्य-धन सम्पदा के देवता। लेकिन धनवन्तरी को यह पद दिलाया किसने? जी हां, उनके एक श्रद्धावान शिष्य-आचार्य सुश्रुत ने।

ईसा से २००० हजार वर्ष पहले हुए काशीराज धन्वतरी दिवोदास। वे अपना राजपाट छोड़कर सन्यासी हो गये। दिवोदास ने अपना राज्य अपने पौत्र प्रतर्दन को सौंप दिया। वे काशी से निकल कर प्रयागराज – यानी भारद्वाज आश्रम में आये। भारद्वाज आश्रम के आस-पास का इलाका उनके अधिकार में था। वहां उन्होंने एक जनसेवा केन्द्र बनाया।

वाल्मीकि रामायण में भी दो विशेष अवसरों भारद्वाज आश्रम का उल्लेख है। एक बार तब जब राम-सीता लक्ष्मण अपने पिता और विमाता कैकेयी की आज्ञा मान कर अयोध्या के राज्य से बाहर निकल रहे थे। वे अयोध्या के रथ को वापस भेजते हैं और आगे पैदल चल पड़ते हैं। वहां से कुछ आगे जाकर सती अनूसुया का आश्रम मिलता है जहां से उन्हें आगे जाने के संकेत मिलते हैं कि कहां जायें। कहां कुटिया बनायें। और दूसरी बार सीता वनवास के समय जब आचार्य वाल्मीकि स्वयं सीता को अपने आश्रम में ले गये। राम का समय धन्वतरी के बाद का है। इस इतिहास के संकेत हमें थोड़े-थोड़े संदर्भ रूप में धन्वतरी के शिष्य आचार्य सुश्रुत के महान ग्रंथ सुश्रुत संहिता में मिलते हैं।

दुनिया में हमेशा विजेता ये सोचते हैं कि अज्ञानियों से हम क्या-क्या सेवा करवा सकते हैं। लेकिन दिवोदास ने उन्हें दास बनाकर काम नहीं करवाया बल्कि उन्हें छोटे-छोटे समूहों में एकत्र करके पढाऩा शुरू किया। अपने बच्चों का पालन कैसे करना चाहिये। अपने घरों में महिलाओं की देखभाल कैसे करनी चाहिये। साफ रहने का क्या मतलब है। ऋतु बदलने के साथ भोजन कैसे बदलना जरूरी है। ये थी आयुर्वेद की शुरुआत। यह सब विवरण कुछ ही समय पहले अरब देश में पाये गये एक बड़े शिलालेख में लिखा हुआ मिला है।

दिवोदास की वीरता की कहानियां उनके मित्र विश्वामित्र को पता चली। विश्वामित्र आयु में छोटे थे और इस बहादुर दोस्त के लिये उनके मन में बहुत आदर आया। विश्वामित्र ने भी सन्यास लिया। दिवोदास ने अपने भारद्वाज आश्रम के लिये यहां से कुछ दूर घने जंगलों में एक आयुर्वेद का एक बडा ़विद्यालय शुरु किया। ताकि शिक्षा के विस्तार से लोगों का विकास हो और वे आरोग्य समझ सकें। विश्वामित्र अपने मित्र के विचारों से प्रभावित थे और वे भी जंगलों में शांति स्थापित करने के विचार से विद्या के प्रचार प्रसार के लिये निकल रहे थे। उनके बड़े पुत्र थे सुश्रुत। विश्वामित्र ने परम्परा के अनुसार सुश्रुत को राज्य देना चाहा किन्तु पुत्र ने कहा – आप जनसेवा के लिये जा रहे हैं मैं भी चलूंगा। मैं आपके मित्र धन्वतरी आचार्य दिवोदास के पास रहकर उनका शिष्य बनूंगा। विश्वामित्र ने राज्य दूसरे पुत्र को दिया और अपना बडा ़बेटा सौंप दिया दिवोदास को।

दिवोदास के गुरुकुल में सुश्रुत विद्या पढ़ते रहे और कुछ ही वर्षों में उनके विशेष शिष्य बन गये। दिवोदास के उपदेशों और शिक्षाओं और आयुर्वेद के प्रयोगों को सुश्रुत ध्यान से सुनते तथा लिखते रहे। इस तरह सुश्रुत की पुस्तक सुश्रुत संहिता आयुर्वेद की वह किताब बन गई जो तत्कालीन जनभाषा संस्कृत में लिखी गई थी। दिवोदास के बाद सुश्रुत ने शिक्षा का कार्यभार संभाला। सुश्रुत ने आचार्य बनते ही आस-पास के राजाओं और राजघरानों से संबंध बनाये। सुश्रुत ने गुरुकुल दवाएं बनाने के अलावा शरीर की चीर-फाड़ के लिये औजार बनाये गये। पहली बार मुर्दे मनुष्य शरीर की चीर-फाड़ करके मानव शरीर को अंदर से खोल कर विद्यार्थियों को क्षतिग्रस्त, कटे-फटे शरीर के अंगों की सिलाई करना सिखाया। पूरे विश्व में सूचनायें पहुंचने लगीं।

चीन चूंकि सबसे करीब था वहां से ज्यादा विद्यार्थी और ज्यादा रोगी आने लगे। अब से लगभग १००० साल पहले एक चीनी आयुर्वेद ज्ञानी – श्रीमान तुच्ची ने यह विद्या सीखी और चीन जाकर सिखाई। सुश्रुत के जाने के बाद तुच्ची ने ध्यान दिया किया भारत की धरती से आचार्य सुश्रुत की संहिता का नाम मिटने को है तो उन्होंने सुश्रुत संहिता को संस्कृत में अनुवादित करवाकर देवनागरी में लिखकर भारत भेजा। यह कम आश्चर्य की बात नहीं आज की आधुनिकतम सर्जरी की शिक्षा में एक विशेष पेपर है ‘Lessons from sushrit’s surgory’|विदेशों में भी सुश्रुत की सर्जरी तकनीक प्रसिद्ध है। जैसे स्किन ग्राफ्टिंग यानि किसी भी घाव पर नयी त्वचा को कैसे चढाऩा कि घाव का निशान न बने। इस खोजबीन का पूरा श्रेय जाता है सुश्रुत को।अधिक हिंदी ब्लॉग पढ़ने के लिए, हमारे ब्लॉग अनुभाग पर जाएँ।


इंदु विश्‍नोई

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