मित्रता

यूं तो मित्रता पर आज तक बहुत कुछ कहा और लिखा गया है, लेकिन इस मृदुल-मधुर भाव को आज के कलयुग में बार-बार रिफ्रेश करने की, पुनर्जीवित करने की महती आवश्यकता है। जीवन का सबसे सुंदर, सबसे बेहतरीन और सबसे प्यारा रिश्ता ‘मित्रता’- इसके बारे में इंसान या तो निःशब्द रहकर, इसके सुकून भरे एहसास में डूबा रहना पसंद करेगा और यदि बोलेगा, तो ऐसा बोलता चला जाएगा कि थमना ही नहीं चाहेगा। क्योंकि, यह रिश्ता है ही ऐसा सलोना और प्रीतिकर कि इस पर अपने भाव और विचार अभिव्यक्त करने वाला थकता ही नहीं। इसलिए मित्रता पर बोलने की अजस्त्र धारा जब प्रवाहित होती है, तो वह रुकने का नाम नहीं लेती। अपरंपार, अबाध, निर्बाध संवाद बन जाती है।

मित्रता किसी प्रयोजन से या आयोजन के तहत नहीं होती, यह तो बस हो जाती है। इस दुनिया में जितने भी रिश्ते उदात्त भावों से जुड़े हैं, वे स्वतः घटित होते हैं, कभी प्रायोजित नहीं होते। दुनिया के अन्य रिश्ते भी मां-बेटी, मां-बेटा, पिता-पुत्री, पिता-पुत्र, भाई-बहन, पति-पत्नी जब मित्रता के भाव में उतर जाते हैं, तो बड़े गरिमामय और महिमामय हो जाते हैं। दो व्यक्तियों का एक-दूसरे के प्रति संवेदना, सम्मान, प्यार, समान प्रवृति, समान सोच, समान नजरिया, समान प्रतिक्रिया, ये सब मिलकर ‘मित्रता’ को जन्म देती है। ये सारे बिंदु मित्रता को फूल की तरह पंखुड़ी-दर-पंखुड़ी विकसित करते और महकाते चले जाते हैं।

जब दो लोगों के बीच मित्रता का बीज पड़ता है, तो पता ही नहीं चलता कि वह बीज कब बोया गया, कब उसकी कोंपले फूटीं, कब वह फूल बना, कब वह महका, कब वह मीठे भावों से तरंगायित हुआ, कब मधुर संगीत की सी गमक उसमें समाहित हुई? बस एक पावन और मनभावन प्रक्रिया के तहत ये सब घटता जाता है और एक दिन वे दो लोग अपने को, एक-दूसरे के सच्चे-अच्छे दोस्त के रूप में पाते हैं। जब मित्रता इस तरह सहजता से विकसित होती है, तो लंबी उम्र वाली होती है। ऐसे लोगों के बीच कभी-कभार कहा-सुनी भी एक-दूसरे पर अधिकार के साथ, बड़े ही प्यारे ढंग से होती है, जो मित्रता को प्रगाढ़ से प्रगाढ़तर बना देती है।

मित्रता को लेकर कुछ अपने अनुभव की बात कहूं, तो मेरा पहला रिश्ता बड़े होने पर, होश संभालने पर, अपनी मां के साथ हुआ, फिर जैसेजैसे बड़ी होती गई, कुछ आत्मीय सखियां बनीं। तभी दौड़ते समय की रफ्तार में पता ही नहीं चला कि कब अपना घोंसला बनाने का मौसम आ गया, शादी हुई, बच्चे हुए और उनके बचपन से लेकर बड़े होने तक की रेशमी अवधि में बेटी और बेटा मेरे सबसे प्यारे मित्र बन गए। मित्र की तरह हम परस्पर गहराई से जुड़े हुए, लड़ते-झगड़ते, रूठते, मनते, गाते, हंसते, बहस करते। मित्र होने के साथ-साथ वह मुझे सलाहियत भी देने लगे। मुझे बड़ा आनंद आता उनके सुझाव गंभीरता से सुनने में और गर्व भी होता कि कल के ये नन्हें-मुन्ने कितने सलीके से सोचने लगे हैं।

असंवेदनशीलता किसी को भी न तो अच्छी लगती है और न बर्दाश्त होती है। संस्कार, मूल्य और आदर्श सदा से ऐसे लोगों की पहली शर्त होती है। इन सबके मुरीद व्यक्ति सहसा एक-दूसरे की तरफ बेलौस खिंचते है। पसंद-नापसंद की समानताएं व संस्कार और मूल्य, मित्रता को और भी गहरा बनाते हैं, रिश्ते की ‘समझ’ विकसित करते हैं, रिश्ते में सांसें फूंकते हैं, उसे अधिकाधिक स्पंदित करते हैं। कम शब्द और अधिक संप्रेषण, मतलब कि फोन पर हों या आमने-सामने, बात पूरी हुए बिना ही, मित्र का उधर से कह उठना कि ‘बस, बस, बस मैं समझ गई या समझ गया’ और इसी तरह वे दोस्त कुछ कहना शुरू करे और आगे कुछ बोले कि आप उससे पहले बोलकर, उसकी बात को पूरा कर दें। जब सोच इस तरह सक्रिय होती है कि एक-दूसरे के विचार और भाव हम पढ़ लें और बोलकर उसे हम चकित कर दें, तो जाहिर है दोनों लोग सोचते हैं कि भई, यह ‘जुड़वा’ की शक्ल जैसी समान सोच, समान समझ, समान तेवर, समान अंदाज। अरे, कमाल ही हो गया कि यह दोस्ती का रिश्ता कब जन्मा, कब पनपा, पता ही नहीं चला?

दुनिया में अच्छे दोस्त मिलना ‘रब का आशीष’ मिलने जैसा ही होता है। आपके पास भले ही दुनिया-जहान की दौलत, महल सा घर, ऐशो आराम के ढेर साधन हों, पर अगर सच्चे अच्छे दोस्तों से आप महरूम हैं, तो दुनिया की सारी दौलतें बेकार हैं। तभी अरस्तू ने कहा है – ‘मित्रों के बिना कोई भी जीना पसंद नहीं करेगा, चाहे उसके पास बाकी सब अच्छी चीजें क्यों न हो।’ और इसलिए जोसेफ हॉल मित्रता के रिश्ते की शान में यह कह गए -‘मित्र दुःख में राहत है, कठिनाई में पथ-प्रदर्शक है, जीवन की खुशी है, जमीन का खजाना है, मनुष्य के रूप में नेक फरिश्ता है।’

इसमें कोई दो राय नहीं कि जब प्रतिकूल समय में सारे रिश्ते चुक गए नजर आते हैं, तो उस समय एक मात्र ‘सच्चा मित्र’ होता है, जो हमारा संबल, हमारा सहारा, हमारी ढाल, हमारा सुकून और हमारा साहस बनकर खड़ा हो जाता है। कुछ मित्र ऐसे होते हैं, जो न वादे करते हैं, न दावे करते हैं, बल्कि जरूरत पड़ने पर दिल खोल के बिना किसी शर्त, बिना किसी देरी के भावनात्मक सहारा देते हैं, हर तरह की मदद करते हैं। न कोई स्वार्थ, न किसी तरह का आलस्य या बहाना, बस तन्मयता से काम में ऐसे जुट जाना कि जैसे उन्हीं का अपना काम हो। कलयुग में यह उदात्त गुण खोजे नहीं मिलता। सीधी सच्ची बात करने वाला, समय पर अधिकार पूर्वक सचेत कर देने वाला, खरा दोस्त-दोस्तों का दोस्त और दोस्तों का गुरूर होता है।

मित्रता में लचीलापन उसे खूबसूरत और दूरगामी बनाता है। ऐंठ और अकड़ की सख्ती उसमें ऐसी दरारें डाल देती है, एक दिन वह चरमरा के टूटकर दो टुकड़े हो जाती है। जिस प्रकार कड़क तना आंधीतूफान आने पर सबसे पहले तड़क कर टूटता है, पर लचीला पेड़ तूफान में झुक-झुक जाता है और तूफान का गुबार निकल जाने पर, फिर उसी तरह सीधा खड़ा हो जाता है। ठीक यही बात मित्रता पर भी लागू होती है। मित्र जितना तनेगा, उतना ही टूटेगा और जितना लचीला रहेगा, उतना ही हराभरा लहलहाता बना रहेगा। मिजाज का यह लचीलापन पुरुष बिरादरी, चाहे वह पिता हो, पति हो, भाई हो या मित्र हो, उनमें कम देखने को मिलता है।

लेकिन, कुछ पुरुष इसके अपवादरूप में सामने आते हैं। जहां तक मैंने ऐसे लोगों को जाना और समझा है, उन्हें कभी कुछ बुरा भी लगता। वे समझदारी से असहमति और खराश के पल में खामोश रहकर, उस तल्ख क्षण को धुएं में उड़ा देने वाले अंदाज को अपना लेते हैं और अगले दिन फिर अपनी रचनात्मक प्रवृति को लिए, कुछ नया और बेहतर कर देने को आतुर से नजर आते हैं। एक पते की बात और, जो इंसान अपने काम के लिए प्रतिबद्ध होता है, वह अपने दोस्तों के लिए भी प्रतिबद्ध होता है और सच्चे भाव से दोस्ती निबाहने के लिए कटिबद्ध बना रहता है। ऐसे अच्छे उदार दिल मित्र क्यों न सराहना के पात्र होंगे, उनमें इतनी खूबियां और कुछ कर गुजरने का जीवट जो कूट-कूट कर भरा होता है। ऐसे मित्र किस्मत वालों को ही मिलते हैं।

कटुता, ईर्ष्या और द्वेष के सूनामी से लबरेज इस युग में मृदुल मधुर मैत्री-भाव को जीवंत रखने और उसे अधिकाधिक पोषण देने की बहुत जरूरत है, तभी जीवन, शीतलशीतल, मंद पुरवाई की तरह बहता, लहकता हुआ समरसता से सराबोर हो सकेगा। तो क्यों न इस दिशा में कदम बढाए़ं।


 – डॉ. दीप्ति गुप्ता । कालनिर्णय हिंदी संस्करण २०१८ 

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