एक्सिडेंट के पश्चात जब मेरी आंख खुली, तो मैंने अपने आपको एक बिस्तर पर पाया। इर्द-गिर्द कुछ परिचित-अपरिचित चेहरे खड़े थे। मेरी आंख खुलते ही उनके चेहरों पर उत्साह व प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। मैंने कराहते हुए पूछा-‘मैं कहां हूं?’
‘आप सरकारी अस्पताल में हैं। आपका एक्सिडेंट हो गया था। घबराने की बात नहीं, सिर्फ पैर फ्रैक्चर हुआ है।’ एक चेहरा इतनी तेजी से जवाब देता है, लगता है मेरे होश आने तक वह इसीलिए रुका रहा। अब मैं अपनी टांगों की ओर देखता हूं, मेरी एक टांग अपनी जगह सही-सलामत थी। और दूसरी टांग एक रेती की थैली के सहारे एक स्टैंड पर लटक रही थी। मेरे दिमाग में एक नए मुहावरे का जन्म हुआ। ‘टांग टूटना’ यानी सरकारी अस्पताल में कुछ दिन मर-मरकर जीना।
सरकारी अस्पताल का खयाल आते ही मैं कांप उठा। अस्पताल वैसे ही एक खतरनाक शब्द होता है, फिर यदि उसके साथ सरकारी शब्द चिपका हो, तो समझो आत्मा से परमात्मा का डायरेक्टर मिलन होने ही वाला है। अब मुझे यूं लगा कि मेरी टांग टूटना मात्र एक घटना है और सरकारी अस्पताल में भर्ती होना एक दुर्घटना है।
टांग से ज्यादा फिक्र मुझे उन लोगों की हुई, जो हमदर्दी जताने मुझसे मिलने आएंगे। ये मिलने-जुलने वाले कई बार इतने अधिक आते हैं और कभी-कभी इतना परेशान करते हैं कि मरीज का आराम हराम हो जाता है, जिसकी मरीज को खास जरूरत होती है। मिलने वालों का खयाल आते ही मुझे लगा मेरी दूसरी टांग भी टूट गई।
मुझसे मिलने के लिए सबसे पहले वे लोग आए, जिनकी कभी टांग टूटी थी तो मैं मिलने गया था, वे मानो इसी दिन का इंतजार कर रहे थे कि कब इसकी टांग टूटे और कब वे अपना एहसान चुकाएं। दर्द के मारे एक तो मरीज को वैसे भी नींद नहीं आती, यदि थोड़ी-बहुत आ भी जाए तो ये मिलने वाले जगा देते हैं। इन्हें मरीज से कोई हमदर्दी नहीं होती। ये सिर्फ औपचारिकता निभाने, अपना चेहरा दिखाने आते हैं। ऐसे में एक दिन मैंने तय किया कि आज कोई भी आए, मैं आंख नहीं खोलूंगा। चुपचाप पड़ा रहूंगा। हमारे ऑफिस के बड़े बाबू, छोटे बाबू के साथ आए और मुझे सोया जानकर सोचने लगे कि यदि मैंने उन्हें नहीं देखा, तो मुझे कैसे पता चलेगा कि वे मिलने आए थे। वे मुझे जगाने के लिए हिलाने लगे। फिर भी जब मैंने आंख नही खोली, तो बड़े बाबू ने छोटे बाबू की तरफ देखा। छोटे बाबू ने एक मिनट इधर-उधर देखा, फिर मेरी टांग के टूटे हिस्से को जोर से दबाया। मैंने मारे दर्द के चीखते हुए अपनी आंखें खोली, तो बड़े बाबू मुस्कराते हुए बोले – ‘कहिए, अब दर्द कैसा है ?’
उस दिन मोहल्ले वाली सोनाबाई अपने चार बच्चों के साथ आई, तो मुझे लगा कि आज फिर कोई न कोई दुर्घटना होगी। आते ही उन्होंने मेरी ओर इशारा करते हुए बच्चों के से कहा, ‘ये देखो चाचाजी!’ उनका अंदाज कुछ ऐसा था जैसे चिड़ियाघर दिखाते हुए बच्चों से कहा जाता है – ‘ये देखो बंदर !’ इसके बाद सोनाबाई दो-चार गालियां ट्रकवाले को देते हुए पत्नी के पास बैठकर लगी मुहल्ले के किस्से सुनाने। बच्चे वहीं खेलने लगे। दो बच्चे फ्रूट की प्लेट से अंगूर लेकर एक-दूसरे पर फेंकने लगे। सोनाबाई की छोटी लड़की दवा की शीशी लेकर कथकली डांस करने लगी। क्या देखता हूं कि एक लड़का मेरी टांग के साथ लटक रही, रेती की थैली पर बॉक्सिंग की प्रैक्टिस कर रहा है। मैं इसके पहले कि उसे मना करता, सोनाबाई की लड़की ने दवा की शीशी पटक दी। सोनाबाई ने एक पल लड़की को घूरा। फिर हंसते हुए बोली – ‘भैया, पेड़े खिलाओ, दवा का गिरना शुभ होता है। दवा गई समझो बीमारी गई।’ उसने जब जाते-जाते कहा – ‘अच्छा चलती हूं, कल फिर आऊंगी’ तो मेरे मुंह से बरबस निकल पड़ा – ‘हे भगवान, कल का सूरज न निकले तो अच्छा।’
कुछ लोग तो औपचारिकता निभाने की हद कर देते हैं। विशेषकर वह रिश्तेदार, जो दूसरे गांवों से मिलने आते हैं। एक दिन एक टैक्सी रूम के सामने आकर रुकी। उसमें से निकलकर एक आदमी आते ही मेरी छाती पर सिर रखकर औंधा पड़ रोने लगा और कहने लगा – ‘हाय, तुम्हें क्या हो गया? हाय, तुम्हें क्या हो गया?’ मैने दिल ही दिल में कहा कि मुझे जो हुआ सो हुआ, पर तू क्यों रोता है, तुझे क्या हुआ? और आखिर तू है कौन?’ वह थोड़ी देर मेरी छाती में मुंह गडाए़ रोता रहा। फिर रोना कुछ कम हुआ। उसने मेरी छाती से अपनी गर्दन हटाई और मुझसे आंख मिलाई, तो एकदम चुप हो गया। फिर धीरे से हंसते हुए बोला – ‘माफ करना, मैं गलत नंबर के कमरे में आ गया था। लगता है गुप्ताजी का कमरा बगल में हैं। हें-हे-हें माफ करना।’ कहकर वह चला गया। अब वही रोने की आवाज मुझे पड़ोस के कमरे से सुनाई पड़ी। मुझे उस आदमी से अधिक गुस्सा अपनी पत्नी पर आया, क्योंकि उसे इस प्रकार रोता देख पत्नी ने उसे मेरा रिश्तेदार समझकर टैक्सी वाले को पैसे दे दिए थे।
हमदर्दी जताने वालों में वे लोग जरूर आएंगे, जिनकी हम सूरत भी नही देखना चाहते। हमारे शहर में एक कवि हैं श्री लपकानंदजी। उनकी बेतुकी कविता से सारा शहर परेशान है। मैं अक्सर उन्हें दूर से देखते ही भाग खड़ा होता हूं। जानता हूं, जब भी मिलें, दस-बीस कविताएं पिलाए बिना नहीं छोड़ेंगे। मगर अब बाजी उनके हाथ थी। जब उन्हें पता चला, मेरा एक्सिडेंट हो गया और मैं भागना तो दूर, चल भी नहीं सकता। सो झोला बगल में दबाए आ धमके। आते ही कहने लगे – ‘मुझे कल ही आपके एक्सिडेंट के बारे में पता चला। सच कहता हूं, मां शारदे की कसम, मैं आपके बारे ही सोचता रहा। रातभर मुझे नींद नहीं आयीं। और हां, रात को इसी संदर्भ में ये कविता बनाई‧‧‧’ यह कह झोले में से डायरी निकाली और लगे सुनाने –
आसाम की राजधानी है शिलांग
मेरे दोस्त की टूट गई है टांग।
ट्रक वाले तेरी ही साइड थी रांग
मेरे दोस्त की टूट गई टांग।
कविता सुनाकर वे मुझे ऐसे देख रहे थे, मानो उनकी एक आंख पूछ रही हो – ‘कहो, कविता कैसी रही? और दूसरी आंख बोल रही हो – बोल बेटा, अब तू भागकर बता तो जानूं।’ मैंने झट से उन्हें चाय पिलाई और कविता सुनने का वादा कर, बड़ी मुश्किल से अपनी जान छुडाई़। अब मैं रोज ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि हे ईश्वर, अगर तुझे मेरी दूसरी टांग भी तोड़नी हो, तो जरूर तोड़, मगर कृपा कर उस जगह तोड़ना, जहां मेरा कोई भी परिचित न हो। क्योंकि बड़े बेदर्द होते हैं, ये हमदर्दी जताने वाले।
– घनश्याम अग्रवाल । कालनिर्णय हिंदी संस्करण २०१८
बहुत ही उम्दा व्यंग्य।