कम खर्चे में शादी
घर में वैवाहिक कार्यक्रम का आयोजन खुशियां लेकर आता है। घर के सदस्य ही नहीं, आस-पड़ोस के लोग और रिश्तेदार भी आनंदित होते हैं। सबकी व्यस्तता बढ़ जाती है। इस दौर में जहां सारी दुनिया कोविड के डर से अपने अपने घर में बैठी है, लोग अपनी और अपनों की जिंदगी के लिये भगवान से प्रार्थना कर रहे हैं, एक बड़ी चिंता शादियों को ले कर भी है। शादी दो लोगों का मिलन नहीं दो परिवारों का एक हो जाना होता है। आम तौर पर एक मध्यमवर्गीय परिवार की शादी में कम से कम ८ लाख से १० लाख रुपये का खर्च आता है।
कुछ लोग इसे परंपराओं का नाम दे कर बढाव़ा देते हैं। समाज शादी में दहेज के खिलाफ काम कर रहा है परंतु आडंबर के खिलाफ हम कब खड़े होंगे? इस विकट समय में हमें ये समझ आया है कि जिन भौतिक वस्तुओं को हम जीवन में बहुत महत्व देते थे, उनके बिना आराम से जिया जा सकता है। समय है शादी में होने वाले फिजूल खर्च़ को कम करने का। यदि आप समर्थ हैं तो आप की जिम्मेदारी ज्यादा है। फिजूल खर्च को कम करें, बच्चों की शिक्षा में निवेश करें। शादियों में उपहार के स्थान पर कुछ सार्थक चीजें करें। राजस्थान के टिंकू और तृप्ति ओझा, मध्यदेश के इंदौर की डॉ‧ यामिनी और डॉ‧ वैभव जैन ने अपनी शादियों में अंगदान के फॉर्म भरवा कर एक मिसाल कायम की है।
पुराने जमाने की शादियों या बड़े बुजुर्गों के किस्सों से भी हम प्रेरणा लें तो यही पायेंगे कि सादगी सदा से हमारी परंपरा रही है, पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव में हम दिखावे में ज्यादा भरोसा करने लगे हैं। आदिवासी परंपरा में आज भी दिखावे का कोई महत्व नहीं है। हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मासिक रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ में भी कई शादियों का जिक्र किया है। ‘गुजरात में सूरत में एक बेटी ने अपने यहां शादी में जो लोग आए, उनको सिर्फ चाय पिलाई और कोई जलसा नहीं किया। बारातियों ने भी उसे इतना ही सम्मान माना।’ कोरोना काल को ही सबक के तौर पर ले कर हम आगे बढ़ सकते हैं। जरुरत है सोच बदलने की। शादी में सादगी की |
इस तरह की शादियों में दूल्हे और दुल्हन के अलावा परिवार के करीबी और अतिथि शामिल होते हैं। इस शादी में कम से कम लोगों को बुलाया जाता है। शादी में शामिल होने वाले लोगों की संख्या अधिकतम ५०-१०० और कम से कम २०-२५ हो सकती है। बावजूद इसके इस तरह की शादी भी बेहद शानदार तरीके से की जाती है। माइक्रो वेडिंग के ट्रेंड में आते ही इस तरह की शादी का चलन कम हो गया है। लोग कम भीड़ में शादी कर रहे हैं। माइक्रो वेडिंग में लोग शादी बजट फ्रेंडली तरीके से कर सकते हैं।
आजकल विवाह संस्कार में अनेक अनावश्यक परम्परायें जोड़ दी गई हैं। दहेज जैसा महारोग हमारे समाज में है। वस्त्रों व आभूषणों पर ही लाखों रुपये फूंके जाते हैं। पचासों प्रकार के भोजन बनाये जाते हैं। इतने पकवान बनते हैं कि पेट पर बुरा प्रभाव पड़ता है। होटल व वैडिंग प्वाइण्ट पर भी लाखों रुपये व्यय किये जाते हैं।
२०११ की जनगणना के मुताबिक ३०त्न भारतीय जनसंख्या (३७ करोड़) शहरों में रहती है और इनमें से १०त्न यानी १० करोड़ के आस-पास लोग शादी की उम्र के हैं यानी २०-३५ साल की उम्र के। १००० पुरुषों में ९२६ महिलाएं हैं तो इसमें महिलाओं की संख्या हुई ४‧५ करोड़ के आस-पास। यानी इतने लोगों की शादी। अगर १० करोड़ लोग शादी की उम्र के हैं और लड़कियों का अनुपात देखें तो ४‧५ करोड़ शादियां तो फिर भी होनी हैं। अगर सालाना एवरेज देखें तो (४५०००००० / १५ = ३००००००)। तो यकीनन इस एज ग्रुप के गैप में कम से कम ३० लाख शादियां तो हर साल होती ही होंगी। सोचिये कितना व्यर्थ का पैसा बर्बाद होता होगा।
जिनके पास धन-संपत्ति है वे दहेज देने के लिए तैयार होते हैं। विडंबना देखिए जिन लोगों के कुछ नहीं भी होता, वे सब कुछ लुटाकर बेटी को विदा करना चाहते हैं। लोग कर्ज लेकर शादी संपन्न करते हैं। एक समय परिवार में लड़की की शिक्षा पर ज्यादा निवेश नहीं किया जाता था, क्योंकि अगर लड़की की शिक्षा में खर्च करेंगे तो उसका दहेज कैसे देंगे।
पर्यावरणीय दृष्टि से भी शादी समारोह को सादगीपूर्ण तरीके से आयोजित करना लाभकारी हो सकता है। समारोह में प्रयुक्त प्लास्टिक-डिस्पोजल पर्यावरण के लिए बहुत घातक होते हैं। सोचिए, अगर शादियों या अन्य अवसरों पर भोजन परोसने के लिए प्लास्टिक-डिस्पोजल की बजाय पत्तलों का इस्तेमाल किया जाए तो यह सेहतमंद, फायदेमंद और पर्यावरण-अनुकूल साबित हो सकता है। पत्तल निर्माण को सशक्त कुटीर उद्योग का स्वरूप देकर बहुतों के रोजगार का बंदोबस्त किया जा सकता है। शादी जैसे समारोह में एक बार इस्तेमाल में आने वाले प्लास्टिक के प्रयोग को कम करने के लिए कई शहरों में ‘बर्तन बैंक’ की शुरुआत की गई है। देश के सबसे साफ शहर इंदौर के नगर निगम की पहल पर कई शहरों में ‘बर्तन बैंक’ की स्थापना की गई है। मकसद है लोग शादी जैसे समारोह में प्लास्टिक के बर्तन खरीदने के बजाय संस्था से स्टील की थाली, कटोरी, चम्मच आदि निशुल्क ले जाएं और आयोजन के बाद उसे साफ कर पहुंचा दें। पर्यावरण संरक्षण की दिशा में यह एक नायाब पहल है। महामारी के संकट का यह दौर हमें एक अवसर दे रहा है कि शादियों को बिना अतिरिक्त खर्च के संपन्न करने की परंपरा को आगे बढाए़ं। कम से कम खर्चे में विवाह संपन्न करा कर संपत्ति को आपात स्थिति या अन्य जरूरतमंदों की मदद के लिए सुरक्षित रखने की पहल की जाए। समाज में फिजूल खर्च को रोकना हमारा मकसद होना चहिए ना की परंपराओं और संस्कारों को, पारंपरिक शादी से बढ़कर कुछ भी नहीं है। आखिर हमारी खूबसूरती ही तो है विविधता और सामंजस्य।
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डॉ प्रणव मिश्र