युवा और रंगमंच
बात उन दिनों की है, जब वियतनाम युद्ध चल रहा था। ब्रिटेन के लोग खुद को अलग-थलग, उदासीन, कटे हुए अनुभव कर रहे थे। उन्हीं दिनों पीटर बु्रक, जो महाभारत नाटक के लिए दुनिया भर में बहुचर्चित रहे हैं, उन्होंने ब्रिटेन के लोगों को वियतनाम पर आधारित एक नाटक दिखाया, किसी मकसद को जाहिर किए और बिना किसी उत्तेजना के, एकदम खामोशी से। नाटक के अंत में एक दृश्य था जिसमें एक पात्र मंच के बीच आता है और एक बक्सा खोलता है। बक्से में से अचानक ढेरों रंग-बिरंगी तितलियां निकल कर पूरे प्रेक्षागृह में उड़ने लगती हैं। ऑडिटोरियम के माहौल में खुशी और हंसी तैर जाती है। तभी अचानक वह अभिनेता एक हाथ में एक तितली के पंखों को पकड़ कर खडा ़हो जाता है और दूसरे हाथ से जेब में रखा लाइटर निकलता है। वह जलता हुआ लाइटर तितली के नजदीक ले जाने लगता है। दर्शक खामोश हो जाते हैं, कोई आवाज नहीं आती। लोग चुपचाप तितली को जलता हुआ देखकर हतप्रभ रह जाते हैं और धीरे धीरे हॉल से बाहर निकल जाते हैं, मन पर न जाने कितना बोझ, अवसाद और उदासी लिए। यह दृश्य कई प्रदर्शनों में दुहराया जाता रहा। एक दिन अचानक एक विचित्र घटना घटी। यह दृश्य चल ही रहा था कि दर्शकों के बीच से एक युवती तेजी से निकली और मंच पर खड़े अभिनेता के हाथों से तितली को आजाद कराते हुए बोली, ‘आपने देखा, खराब से खराब हालात में ही कुछ ना कुछ तो किया ही जा सकता है।’ रंगमंच की भाषा और समाज की संवेदनशीलता को लेकर इस दृश्य के कई मायने निकाले जा सकते हैं लेकिन उस युवती का उस तितली को बचा लेने की पहल क्या रोशनी की एक नई लकीर खींच देना और मन में उम्मीद भर देना नहीं है?
इस बेरुखे और असंवेदनशील होते जा रहे समय में। इसे युवा ताकत की ओर से सार्थक हस्तक्षेप के रूप में भी देख सकते हैं।
हर क्षेत्र में असीम प्रतिभा से भरे युवा मौजूद हैं। तमाम रचनात्मक पहल के बावजूद जब आप आसपास देखते हैं तो पाते हैं कि वो मनोरंजन के बादशाहों, खेलकूद के सम्राटों और अश्लील होते जाते टेलीविजन-मोबाइल-फोन के मास्टरमाइंड में जैसे गुम हो गए हैं। बुद्धि और तर्क की जगह खत्म होती जा रही है। आप सिर्फ एक दर्शक हैं। घायल मस्तिष्क तैयार हो रहे हैं। हिंसा, सेक्स या पारिवारिक तनाव की हजारों छवियां एक साथ आ-जा रही हैं। यहां तक की अब एबनॉर्मल चीज भी नॉर्मल लग रही है। ऐसी खामोश, थोड़े समय की और लगभग बेमानी हलचल के बीच हमारी सारी उम्मीदें युवा शक्ति की तरफ जाकर टिक जाती हैं। ऐसे में एक तरह की जिज्ञासा स्वाभाविक है कि रंग भाषा, रंगमंच और युवा मन की कैसी साझेदारी या संगति हो सकती है, कैसी भूमिका बन सकती है, युवा-मन को मोड़ने के लिए रंगमंच की अपनी भूमिका कैसी हो सकती है?
बहुत तेज भाग रहे इस समय में अपनी अस्मिता, अपनी पहचान जाहिर करने के लिए नाटक करना उसकी रिहर्सल में शामिल होना अजीब-सा लग सकता है, लेकिन रंगमंच या थिएटर या नाटक की दुनिया का इलाका अपनेपन, भावनाओं, संवेदनाओं और खुलेपन से भरा-पूरा है। यहां ‘रिस्ट्रिक्शन’, ‘नो एंट्री’ या ‘प्रोहिबिटेड’ जैसी बोर्ड नहीं लगे हैं। वैसे भी इस तरफ आने वालों की तादाद कितनी कम है। करियर की बात छोड़ दीजिए, थिएटर में आना, बिना किसी उम्मीद या फायदे के इससे जुड़े रहकर इसके हर पहलू को समझना असल में जिंदगी को जानना और खुद से बहुत गहराई से बातचीत करना है। यह अलग बात है कि हिंदी समाज में यानी हिंदी भाषा बोलने वाले इलाकों में थिएटर करने वालों को ‘नाटक नौटंकी वाले’ से ज्यादा अहमियत नहीं दी जाती। बेशक, किसी नए रास्ते पर चलना, नाटक की रिहर्सल या किसी आर्ट फॉर्म से जुड़ जाने वाले लोगों को बाकायदा विद्रोह करके आना पड़ता है और ऐसे लोगों की तादाद बहुत कम होती है।
थिएटर करियर बनाने की एक संभावना जरूर हो गया है। टेलीविजन या सिनेमा की ओर जाने का एक रास्ता या एक सीढ़ी। लेकिन किसी भी मनुष्य में दो इच्छाएं कभी नहीं मरतीं या खत्म होती। पहली इच्छा होती है अपना दायरा बढाऩे की, खुद को नये सिरे से खोजने की, अपनी पहचान कायम करने की इच्छा। दूसरी इच्छा है जीवंत संवाद करने की इच्छा। कोई भी मनुष्य किसी वीरान द्वीप पर अकेले नहीं रहना चाहता। वह खु़द से बातचीत तो करना ही चाहता है पर किसी और इंसान या तरह तरह के लोगों से जीवंत संवाद कायम करने की इच्छा रखता है। जहां तक रंगमंच का सवाल है, तो रंगमंच में विस्तार और तलाश मुमकिन है। युवा अपनी पहचान थियेटर के जरिये कायम कर सकते हैं। यकीन मानिए, थियेटर से जुड़कर आप अपने भीतर छिपे व्यक्ति को उसकी पूरे निखार के साथ पहचान पाते हैं। और समाज में अपनी एक खास पहचान भी कायम कर पाते हैं।
कम से कम रंगमंच से जुड़ने के बाद ये तो पक्का है कि एक आधुनिक युवा अपने आज के साहित्य को जानेगा और अपनी साहित्यिक परंपरा के साथ, अपने समाज और संस्कृति को जानेगा। आज आधुनिक युवा को एक तरफ अगर गांधी चाहिए तो कार्ल मार्क्स भी चाहिए। उसे हिन्दू, इस्लाम, क्रिश्चियेनिटी वगैरह सब धर्मों को जानना, समझना और उनका आदर करना होगा। मदर टेरेसा, मेधा पाटेकर जैसे बहुत से व्यक्तित्वों को तो वह जानेगा ही। अपनी भाषा के लेखकों, कवियों के साथ अरुंधति रॉय, किरण देसाई, झुंपा लाहिड़ी, अनीता देसाई, विक्रम सेठ, अमिताव घोष, सलमान रशदी आदि के साथ कालिदास, शेक्सपीयर, भास, भवभूति, शूद्रक, युरोपिडीज, सोफोक्लीज, रवीन्द्रनाथ टैगोर, कबीर, तुलसी, सूर, मीरा, भारतीय संत व भक्ति परम्परा के कवियों, संस्कृत भाषा और लोक साहित्य, लोक संगीत, गौतम बुद्ध, गुरु नानक, शंकराचार्य, महावीर, चार्वाक को भी जानना होगा। आज के जमाने के युवा को सत्यजीत रे, चार्ली चैप्लिन, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन, भूपेन हजारिका, रतन थियाम, हबीब तनवीर, सुजुकी, पीटर ब्रक, ब्रेष्ट, आदि को जानना चाहिए। वह गालिब, मीर, अमीर खुसरो, बुल्ले शाह को भी जानेगा सोचेगा, समझेगा ही। उसे प्रेमचन्द, मंटो, चेखव, दोस्तोवस्की, निर्मल वर्मा, नामवर सिंह आदि का भी पता होना चाहिए। उसे विश्व की सामाजिक क्रांतियों, भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के इतिहास, दुनिया की कला परंपरा के महत्वपूर्ण लोगों, आंदोलनों की भी खबर रखनी होगी। दुनिया को जानने और लगातार जानते रहने की कोशिश में ये फेहरिस्त लगातार बढ़ती चली जाती है।
थियेटर से जुड़कर आप डेमोक्रेसी के मतलब को भी जानते समझते हैं। सेक्युलरिज्म के मायने जान पाते हैं। रंगमंच आपको एक बेहतर मनुष्य बनाता है। आपके भीतर एक तर्क, अर्थ और उम्मीद से भरा मन तैयार करता है। आप भारत तक ही नहीं सीमित रहते, पूरी दुनिया आपके दायरे में आ जाती है। जहां भी जो कुछ घटित हो रहा है, आप उससे जुड़ते हैं और उसे अपने थियेटर के विषयों में शामिल करते हैं।
रंगमंच में युवाओं की भागीदारी को लेकर विश्व और भारतीय परिदृश्य को देखें तो बहुत उम्मीद के साथ हम कह सकते हैं कि युवा और रंगमंच एक साथ सार्थकता की तलाश के सही रास्ते पर हैं। गुडमैन थिएटर (भले मनुष्यों का रंगमंच) और ड्रामा थेरेपी जैसे विचार को लेकर एजुकेशन, इंगेजमेंट, एक्टिविज़्म यानी शिक्षा, भागीदारी और सामाजिक बदलाव में हिस्सेदारी अब समाज का हिस्सा बन रही हैं। इसके अंतर्गत नस्लवाद, जलवायु संकट, पर्यावरण, हिंसा, विस्थापन, सामाजिक न्याय, विकलांगता और जेंडर के सवालों को भी थियेटर का कंटेंट बनाया जा रहा है। इन विषयों पर संवाद, जागरूकता, शिक्षा को रंगमंच के टूल के रूप में शामिल कर सामाजिक बदलाव लाया जा रहा है। स्ट्रीट थियेटर जैसी विधा तो फौरन ही लोगों पर असर डालती आयी है और लगातार असर डाल भी रही है। यह नए दौर के युवाओं का प्रदर्शन है और उनका प्रोटेस्ट या विरोध भी।
दुनिया की कोई भी कला हो, कलाकृति हो या रंगमंचीय प्रस्तुति—उसकी लोकप्रियता को नापने का सबसे सही तरीका ये है कि उसकी ‘युवा दर्शकों में कितनी अपील है’। अगर आप युवाओं को जोड़ पा रहे हैं और उनका ध्यान अपनी तरफ खींच पा रहे हैं तो यकीन मानिए आपकी कला का भविष्य उज्ज्वल है।
युवाओं के लिए रंगमंच, थिएटर फॉर यंग ऑडियंस जैसे विचार पर दुनिया के तमाम देशों में गंभीरता से काम हो रहा है। भारत में भी नए तरह के इसे लेकर काफी कुछ सोचा और किया जा रहा है। ब्रिटेन का नेशनल यूथ थिएटर रचनात्मक कला के माध्यम से युवाओं के विकास के लिए प्रतिबद्ध है। बेहतर जीवन और समाज के लिए नाट्य निर्माण के लिए हर प्रकार की सहायता नेशनल यूथ थिएटर की ओर से की जाती है। इसकी स्थापना १९५६ में दुनिया के पहले युवा थियेटर के रूप में हुई थी। ऐसी ही संस्थाएं हमारे सृजन एवं परिवेश के लिए आवश्यक हैं।
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प्रवीण शेखर