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एक दुकडा भलाई का…और जिंदगी बदल गई | संजय पटेल | A piece of goodness…and life has changed | Sanjay Patel

एक दुकडा भलाई का…और जिंदगी बदल गई

सुबह की सैर के लिए बरसों से बिस्तर जल्द छोड़ देता हूं। एकरसता मुझे रास नहीं आती इसलिए अलग अलग इलाकों में घूमता हूं। इस बार नजदीक की एक कॉलोनी के बगीचे का रुख किया। वॉकिंग ट्रेक पर चक्कर लगाते हुए एक शख्स पर नजर गई। वह अपने केन से पानी निकालकर दरख्तों में डाल रहा था। मुझे कौतुहल हुआ तो ट्रेक छोड़कर उसके नजदीक पहुंचा। जब पेड़ में पानी डालने की तफसील जाननी चाही तो उन्होंने बताया कि ये काम बीते बीस बरसों से कर रहे हैं। गर्मियों में पानी की किल्लत होती है और पेड़-पौधे पानी को तरसते रहते हैं। वह रोजाना घर से अपने टू व्हीलर पर दो केन पानी लाते हैं और पेड़ों की प्यास बुझाने के बाद ही घूमना प्रारंभ करते हैं। मैं उनके इस सुकृत्य से न केवल रोमांचित था बल्कि आश्चर्यचकित भी। मैंने पूछा आपके दो केन से इतने सारे पेड़ कैसे तृप्त होंगे? उन्होंने कहा जब कुछ नहीं तो थोड़ा बहुत भी बहुत कुछ होता है। उन्होंने बताया कि वे इस बात की सतर्कता बरतते हैं कि बारी-बारी से सभी पेडों की प्यास बुझा सके। इसके लिए उन्होंने बाकायदा एक सिस्टम बना रखा है जिसके तहत आज पानी पिलाएं पेड़ के तने में वह एक लाल धागा बांध देते हैं जिससे अगले दिन वहीं पेड़ रिपीट न हो जाए और कोई दूसरा पेड़ प्यासा न रह जाए।

यूं देखें तो ये काम बहुत साधारण से हैं लेकिन इनका सामान्य होना ही इन्हें विशेष बना देता है। यह बताता है कि छोटे छोटे संकल्पों से कितने सकारात्मक और सुखद कार्य पूर्ण हो सकते हैं। ऐसा करने वाले दरअसल सुयश से ज्यादा अपने मन के संतोष को तरजीह देते हैं। कई हैं जो बहुत खामोशी से अपने काम में लगे हैं। शायद इनके मौन-यज्ञों के कारण ही हमारा परिवेश, समाज और देश साफ-सुथरा, दिव्य, विकसित और गतिशील दिखाई देता है।

कुछ दिनों पहले ही एक ऐसे शख्स से संवाद करने का मौका मिला जिनका काम न केवल सराहा गया बल्कि उसके लिए उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से अलंकृत भी किया। ये हैं राजस्थान के जिले राजसमंद के ग्राम पिपलांत्रि के श्यामसुंदर पालीवाल। पालीवाल जी संगमरमर की बहुतायत वाले राजसमंद में खदान मजदूर थे। २००५ में मित्रों के आग्रह पर पंचायत का चुनाव लड़े और सरपंच चुने गए। दो बरस बाद ही उनकी प्रिय बेटी किरण का निधन डीहाड्रेशन के कारण हो गया। जाहिर है पालीवाल जी सदमे में थे। शोक निवारण के दिन सारे गांववासी संवेदना प्रकट करने एकत्र हुए तो न जाने कैसे अंतरमन की आवाज पर पालीवाल जी को प्रेरणा हुई कि और उन्होंने बेटी की स्मृति में एक कदम्ब का एक पौधा रोपा। इस दृश्य को देखकर जब सभी ग्रामवासियों द्रवित हो रहे थे तभी श्यामसुन्दर जी ने संकल्प करवाया कि मैंने बेटी को खोकर एक पौधा रोपा है; क्यों न आज के बाद हम किसी भी परिवार में बेटी के जन्म लेते  ही १११ पेड़ लगाएं और अपने परिवेश को हराभरा बनाएं। पालीवाल जी ने बताया उसी  भावुक क्षण के बाद पूरा गांव मेरे समर्थन में आगे आया और वृक्षारोपण का जुनून भाई-बहनों के मन पर सवार हो गया है। आज राजसमंद जिले में चार लाख पेड़ लहलहा रहे हैं। जल स्तर ५०० फीट से ४० से ६० फीट पर लौट आया है। हरियाली के कारण जंगल, जीव और भूजल समृद्ध हो गए हैं।

एक शाम परिवार के साथ मॉल से शॉपिंग कर बाहर आ रहा था तो एक पकी उम्र के व्यक्ति ने अभिवादन किया। नजदीक आए और कहने लगे सर! आपसे एक निवेदन करूं – ‘अगली बार शॉपिंग के लिए आएं तो घर से कपड़े की थैली जरूर साथ लाएं’। मैंने कहा क्यों? जवाब मिला देखिए न आपके हाथ में प्लास्टिक की जितनी भी छोटी-छोटी थैलियां हैं ये पर्यावरण हितैषी नहीं हैं। कहने लगे प्लास्टिक सदियों तक मौजूद रहता है और हमारे प्राकृतिक संसाधनों को लील जाता है। ये कहते हुए उन्होंने मुझे एक कपड़े की थैली भेंट कर दी। मैंने पूछा आप किसी संस्था के लिए काम करते हैं? जवाब में उन्होंने बताया नहीं मैं तो एक सेवानिवृत्त व्यक्ति हूं, मध्यमवर्गीय पृष्ठभूमि से हूं लेकिन मुझे प्रकृति से अगाध स्नेह है। सस्ता लेकिन मजबूत कपडा ़खरीदता हूं और थैलियां सिलवाकर प्रतिदिन ८-१० व्यक्तियों को भेंट कर देता हूं। रिटायर्ड हूं घर में बैठा-बैठा क्या करूं?

कोरोना खत्म होने के बाद अपने मिष्ठान्न व्यवसायी अनन्य सखा के घर जाने का प्रसंग बना। उल्लेखनीय है कि वे प्रतिदिन अपनी बेटी और बहू की मातुश्री को विगत १६ वर्षों से बिना नागा प्रतिदिन एक पोस्टकार्ड डालते हैं जिसमें कोई सुविचार या छोटी सी काव्यपंक्ति होती है। इस बार उनकी टेबल पर पड़े पत्रों पर कुछ ऐसे पते लिखे हुए देखे जो अपरिचित से थे। जिज्ञासा प्रकट की तो उन्होंने बताया कि बीते दो बरसों में पूरे कोरोना काल में उन्होंने प्रमुख दो अखबारों में जितने भी शोक संदेश प्रकाशित हुए उन सब के परिवारों को संवेदना-सन्देश भेजा। ये पूछने पर कि ऐसा करने के पीछे क्या भावना रही? उन्होंने बताया कि कोरोना जैसी महामारी में सैकड़ों परिवार शोक-संतप्त थे। वॉट्स एप्प संदेशों का अतिरेक था। मिलना-जुलना मुमकिन नहीं था तब मेरे मन में विचार आया कि परिचित लोगों को पचास पैसे का एक पोस्टकार्ड डालकर अपनी श्रद्धांजलि भेजूं। रोज अखबारों से शोकग्रस्त परिवारों के पते निकालता और सद्भावना भरा पोस्टकार्ड लिख भेजता। यह काम मेरी दिनचर्या में शामिल हो गया और इस कदर आदत में आन बसा है कि कोरोना के बाद भी जारी है। दुःख की घड़ी में भावनाभरी दो पंक्तियां वाकई किसी के लिए कितनी बड़ी ताकत बन सकती है यह मुझे अपने मित्र की बात से महसूस हुआ।

दीपावली की उत्सवी बेला में जब हम कपड़े, जेवर और मिठाइयां खरीद रहे होते हैं तब हमारे ही घर में साफ-सफाई कर रहे कर्मचारी भी होते हैं जिनकी अपनी विवशताएं और अभाव हैं। शहर इन्दौर में ही एक रिहायशी इलाके के समर्थ लोगों ने घर का काम करने वाली सेविकाओं, माली, सफाई और दीगर काम करने वाले सेवा बस्तियों के लोगों के लिए बीते पांच बरसों से एक अभिनव अभियान चला रखा है। दीपावली के पहले ये निवासियों को गिफ्ट कूपन बांट देते हैं जो कामकाजी लोगों को दिया जा सकता है। ये कूपन दिखाकर ये भाई बहन नियत दिन घर में बनाए जाने वाले पकवानों की सामग्री, कुछ बर्तन और पूजा सामग्री प्राप्त कर लेते हैं। एक सामूहिक प्रयास से न जाने कितने घरों में मुस्कान बिखर जाती है।

इसी तरह मेरे शहर में एक सज्जन हैं जो हर सुबह एक मैदान में घूमने वाले लोगों को मुफ्त में नीम का पानी पिलाते हैं और स्वास्थ्य रक्षा में अपना योगदान देते हैं। वे इसके लिए कोई राशि नहीं लेते। कार में अपने घर से ज्यूस निकालकर लाते हैं, बड़े मजे से यह सेवा प्रकल्प चलाते हैं।

ये सारे उदाहरण बड़ी छोटी कोशिश के पीछे पवित्र भावनाओं का इजहार हैं। जरूरी नहीं कि किसी भी काम को पूरा करने के लिए कोई रजिस्टर्ड संस्था बनाई जाए। कोई विधान बनाया जाए और फिर चमकीले बैनर लगाकर सितारा होटलों में गतिविधियां संचालित की जाएं। मन में बस कुछ करने का इरादा होना चाहिए। अपने लिए तो हम सब करने को तैयार हो जाते हैं लेकिन अपनी हद में ही सही हस सबकों ऐसा कुछ करना चाहिए जो हमारी आत्मा को संतोष और सुकून दे सके। ध्यान रहे छोटे छोटे कामों से मिलने वाली रुहानी खुशी बेजोड़ होती है। बिना किसी अपेक्षा के किसी काम को करने का अपना मजा है फिर वह पेड़ों में पानी डालने का हो, पर्यावरण हितैषी कपडे की थैलियां या फूलों के बीज बांटने का हो या स्वास्थ्यवर्धक पेय पिलाने का। काम होते जाना चाहिए। हमें नहीं भूलना चाहिए कि डांडी यात्रा निकलाकर नमक उठाने के महात्मा गांधी छोटे से काम के पीछे निहित विराट संकल्प से ही अंग्रेजों को ये संदेश चला गया था कि नाटे कद का यह दुबला-पतला व्यक्ति देश को आजाद करने का विराट कारनामा दिखा सकता है।

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संजय पटेल

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