डरें नहीं, मुकाबला करें
हम जिस समाज से वाबस्ता है, वहां यह मान लिया गया है कि इज्जत का बोझ स्त्रियों के नाजुक कंधों पर लदा है, पर अफसोस कि उसके नाजुक हृदय का खयाल समाज को नहीं रहता। और खयाल रखा भी जाता है, तो वह इस रूप में होता है कि उसकी उडाऩ ही थम जाती है।
एक बार किसी पिता ने सोशल मीडिया पर लिखा कि मैं अपनी बेटी से बहुत प्यार करता हूं, बराबरी का हक देता हूं, लेकिन ऐसा जताने के लिए मैं उसे खतरे में नहीं डाल सकता, मैं उसे रात को अकेले नहीं भेज सकता।
बेटियों की सुरक्षा किसी भी अभिभावक के लिए सबसे महत्वपूर्ण होती है। जीवन साथी या परिवार के अन्य पुरुष सदस्य अपने परिवार की महिला सदस्यों के लिए फिक्रमंद रहते हैं। परिपक्व स्त्री को भी रात के बारह बजे अकेले नहीं निकलने देंगे, यह जानते हुए भी कि कानून है उनके हक में, हेल्पलाइन नंबर १०९० है, पुलिस कंट्रोल रूम का नंबर १०० है और ११२ नंबर भी तो है। एक अदद स्मार्ट फोन है, जिसमें कुछ एप्स भी डाउनलोड किए जा चुके हैं, इन वुमन सेफ्टी एप्स के जरिए तत्काल सहायता मांगी जा सकती है। पर्स में कुछ सेफ्टी स्प्रे भी हैं और लोकेशन तो निश्चित रूप से किसी अपने को शेयर की ही जा सकती है, फिर भी स्त्री के मन में डर है और उसके परिजन के मन में भी, लिहाजा देर रात बाहर निकलना टाला जाता है।
दरअसल स्त्री जानती है कि एक जरा सा खराब अनुभव उसे बहुत पीछे धकेल देता है। परिवार को बता दिया, तो आगे बढ़ने की राह और भी मुश्किल हो जाती है और छिपा ले तो घुटन होने लगती है। कई बार हादसे इतने अचानक होते हैं कि संभलने का वक्त ही नहीं मिल पाता। वहीं कुछ हरकतें इतनी बार दोहराई जा चुकी होती हैं कि उन्हें नजरअंदाज कर देने की सलाह दी जाती है, जैसे घूरना, टल्ला देकर निकल जाना, पीछा करना‧‧‧। अब तो ऑनलाइन छेड़छाड़ के मामले भी तेजी से बढ़ रहे हैं, इनबॉक्स में अश्लील तस्वीरें भेजना और लगातार फेसबुक जैसी सोशल साइट के जरिए कॉल करने का प्रयास करना आम बात है। तकनीक के इस युग में साइबर स्टाकिंग (बार-बार टेक्स्ट मैसेज करना, रिक्वेस्ट भेजना या अपडेट पर नजर रखना आदि), साइबर पोर्नोग्राफी (पर्सनल वीडियो या फोटो ऑनलाइन पोस्ट करना या धमकी देना), साइबर बुलिंग (गंदी भाषा धमकी से इंटरनेट पर तंग करना) और साइबर स्पाइंग (चेंजिंग रूम या लेडीज वॉशरूम में हिडन कैमरे से तस्वीरें लेना) जैसे ऑनलाइन हिंसा के स्वरूप सामने आ रहे हैं, ऐसे में घर से अकेले बाहर निकलने पर टोका टोकी करने वाले परिजन अब परिवार की स्त्रियों के मोबाइल पर भी नजर रखने लगे हैं।
अपराध पर अंकुश लगाने में नाकाम समाज स्त्रियों के प्रति सख्त बना रहता है और स्त्रियां भी प्रायः खुद के प्रति सख्त हो जाती हैं। नाकाम समाज और नाकाम प्रशासन बलात्कार की प्रत्येक घटना के बाद स्त्रियों को शारीरिक रूप से भी सख्त होने की ट्रेनिंग देना चाहता है। इस ट्रेनिंग का कोई ठोस स्वरूप भी उनके पास नहीं होता, ऐसे में बस एक ही बात रह जाती है कि अनजानी राहों पर या रात के अंधेरे में अकेले नहीं निकलना है। लड़कियां अक्सर इस हिदायत के बाद यह सवाल पूछती ही नहीं कि एक अकेला पुरुष साथी अपराधियों की गैंग से कैसे लड़ सकता है!
समाज भी कई बार असहाय ही होता है। आपके आस-पास का सामान्य समाज वाकई इतना स्त्री विरोधी नहीं है, जितना दिखाई देता है, लेकिन स्त्रियों की सुरक्षा को लेकर क्या उपाय करने चाहिए, यह समझ नहीं पाया है। सच पूछिए, तो मेरे पास भी कोई सटीक जवाब ही नहीं है, पर दो बेहद खास अनुभव हैं, जो इस बात की ओर इशारा तो करते ही हैं कि स्त्री सुरक्षा में समाज की भूमिका बेहद अहम होती है। पहला अनुभव मरु प्रदेश की यात्रा का है। इस यात्रा के दौरान मैंने कई जगहों पर जोगी समाज के डेरे देखे। मेरा मन हुआ कि उनसे मिलने जाऊं, पर इत्तेफाक से दोपहर का वक्त था, आस-पास के लोगों ने मना कर दिया कि इस वक्त डेरे पर मत जाना, स्त्रियां अकेली होती हैं, वे किसी भी बाहरी व्यक्ति का आना बर्दाश्त नहीं करेंगी, वे अपने शिकारी कुत्तों से हमला भी करवा सकती हैं। मैंने कोशिश की कि मैं उन्हें पुकारूं, लेकिन उनके डेरे दूर थे, आवाज वहां तक नहीं जा सकती थी। टोले में अकेली रह गई स्त्रियां बेहद सतर्क रहती हैं, सजग रहती हैं, उन्हें खतरों से निपटना आता है, ऐसा नहीं है कि इन स्त्रियों के साथ कभी कोई हादसा नहीं हुआ होगा, लेकिन निश्चित रूप से उनके समाज ने उसे हादसे के रूप में ही लिया होगा, उनकी इज्जत कांच की तरह छन्न से नहीं टूटी होगी। उस स्त्री को इस बात का भय भी नहीं होगा कि उसे टोले से बाहर कर दिया जाएगा।
एक अन्य अनुभव डूंगरपुर के भील आदिवासी समाज का है। होली के अवसर पर वहां जाना हुआ। हैरान थी देखकर कि होली मनाने के लिए गलियों, चौराहों पर जितनी भीड़ पुरुषों की थी, उतनी ही स्त्रियों की भी। सब अपनी मस्ती में नाचते-गाते-बजाते जा रहे थे, मैं सतर्क थी कि कहीं कोई छेड़छाड़ की घटना न हो जाए, लेकिन मेरे तो क्या किसी भी स्त्री के साथ कोई ऐसा हादसा न हुआ। वहां के पुरुष स्त्रियों को अपने साथ देखने के अभ्यस्त हैं। परिवार में लडके और लडकी की परवरिश एक जैसे तरीके से होती है। वर्जीनिटी का कोई मसला नहीं होता। प्रेम और स्पर्श को सामाजिक स्वीकार्यता है, ऐसे में वे किसी स्त्री की मौजूदगी से बौखलाते नहीं।
दरअसल जिस समाज ने स्त्रियों पर ज्यादा भरोसा किया है, ज्यादा आजादी दी है, उस समाज में स्त्रियां ज्यादा सुरक्षित पाई गईं। आदिवासी और घुमंतू समाजों में आप देखेंगे कि स्त्रियों की क्षमताओं पर ज्यादा यकीन किया जाता है, उनका एक्सपोजर ज्यादा है, ऐसे में उन्हें मुश्किलों से लड़ना भी ज्यादा बेहतर तरीके से आता है। वहीं मुंबई जैसे महानगर भी स्त्रियों की क्षमताओं पर ज्यादा भरोसा करते हैं, वहां भी रात के समय दूसरे शहरों के मुकाबले स्त्रियां ज्यादा सुरक्षित हैं। वहां पुरुषों को आदत पड़ चुकी है, स्त्रियों को रास्तों में देखने की, अपने साथ काम करते हुए देखने की, खुद से आगे बढ़ते हुए देखने की। यह आदत हर हाल में बनी रहनी चाहिए, लेकिन जब आदिवासी और घुमंतू लोग रोजगार की तलाश में दूसरे शहरों में जाते हैं या शहर उनकी ओर घुसपैठ करते हैं, तो जाहिर-सी बात है कि माहौल पर कुछ असर होता ही है, इस असर से बचना जरूरी है। समाज कोई सा भी हो, स्त्रियों को अपना हक बरकरार रखने के लिए लगातार प्रयास करने ही होंगे।
वहीं जिन समाजों में, जिन इलाकों में पुरुषों को अब तक स्त्रियों को कदम-कदम पर साथ देखने की आदत नहीं पड़ी, वहां की स्त्रियां क्या करें? यह सवाल जस का तस है और जवाब कई स्तरों में बंटा हुआ। हमारी सुरक्षा के लिए, हम खुद, हमारा समाज और पुलिस-प्रशासन को मिलकर प्रयास करना होगा। हालांकि समाज और पुलिस-प्रशासन की तासीर एक जैसी नहीं होती, अच्छे लोगों के संपर्क में आएंगे तो समाज और पुलिस की अच्छी छवि नजर आएगी। अगर समाज और पुलिस आपके मददगार बने तो निश्चित रूप से ऐसा होने पर आपको सार्वजनिक रूप से उनकी प्रशंसा करनी चाहिए ताकि अन्य लोग भी ऐसा करने को प्रेरित हों, वहीं अगर वे आपकी सुनवाई न करें, तो थोडा साहस रखते हुए सार्वजनिक रूप से उनकी आलोचना अवश्य करें। पुलिस से शिकायत है तो ट्वीट के जरिए भी अपनी बात रखी जा सकती है। सोशल मीडिया का सही इस्तेमाल आप अपने हक की लडाई़ के लिए कर सकते हैं, हमने देखा है कि मीटू मूवमेंट सोशल मीडिया के जरिए ही पूरी दुनिया में फैला था और कई महिलाओं ने अपनी आवाज इस माध्यम के जरिए उठाई। कुछ मामले आगे चलकर अदालत तक भी पहुंचे और स्त्रियों के हक में फैसले आए। अधिकतर स्त्रियां ऐसी ही रहीं, जो बस अपनी आपबीती सुनाना चाहती थीं, ताकि बरसों से जो बोझ उनके दिल पर था, वो हल्का हो सके, साथ ही अपराधी पुरुषों का शर्मिंदगी का सामना करना पड़े, ताकि वे आगे से ऐसी हरकत न करें।
आवाज उठाना जरूरी है, बेहद जरूरी है, इस बात की परवाह किए बगैर कि कोई आपके बारे में क्या सोचेगा? क्या राय बनाएगा? आपको दरअसल अपने बारे में राय बनानी है। तो बनाइए अपने बारे में राय? पूछिए चंद सवाल खुद से कि अपनी सुरक्षा को लेकर क्या-क्या सावधानियां बरतती हैं आप?
सोचिए और समझिए कि सबसे ज्यादा आपका नियंत्रण खुद आप पर ही है, ऐसे में सतर्क रहिए। हेल्पलाइन नंबर, पुलिस कंट्रोल रूम नंबर सहित कुछ नंबर हमेशा टिप्स पर रखिए, तकनीक का सही इस्तेमाल करना सीखें और अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करें। मोबाइल की बैटरी घर से निकलते वक्त फुल चार्ज हो, यह जरूर ध्यान रखें। और सबसे बड़ी बात खुद को यह समझाना है कि हादसों को हादसे की तरह ही लिया जाता है। पीड़ित को मुजरिम करार देने वाले लोगों की सोच पर लगातार प्रहार करें, तब भी करें, जब हादसा किसी अनजान स्त्री के साथ हुआ हो। याद रखने की जरूरत है कि सामाजिक सोच को बदलने की प्रक्रिया बेहद लंबी होती है, लेकिन युद्धस्तर पर साझा प्रयास इस अवधि को कम कर सकते है। और जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक घर से बाहर निकलते वक्त पूरी सतर्कता बरतें, याद रखें कि आपका घर से बाहर निकलना, उस स्त्री के हक में माहौल बनाता है, जो सपने देखना जानती है।
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उमा