इंटरनेट की गिरफ्त में बचपन
मोबाइल और इंटरनेट के इस युग ने जहां पूरी दुनिया को जोडा ़है, वहीं इसके काफी नुकसान भी सामने आए हैं। कोरोना महामारी के दो सालों की घर-बंदी ने बच्चों को इंटरनेट का बंदी बना लिया और हालात ये हैं कि इसकी गिरफ्त से छुडाऩे के लिए अब पैरेंट्स को साइकोलोजिस्ट तक के चक्कर काटने पड़ रहे हैं, ताकि वे अपने बच्चों को मोबाइल से बाहर की दुनिया में फिर ला सकें। वहीं साइबर क्राइम में फंसते बचपन की दुर्दशा से अब कोई अनजान नहीं है।
यूनीसेफ के मुताबिक दुनिया भर के देशों में कोरोना के लॉकडाउन और उसके बाद के समय में ऑनलाइन हिंसा, साइबर हिंसा और डिजिटल उत्पीड़न से होने वाले खतरे बढ़े हैं। सभी देशों से यूनीसेफ ने बच्चों और युवाओं के खिलाफ ऑनलाइन हिंसा से निपटने और उसको रोकने के लिए ठोस कार्यवाही का आह्वान किया है। इसके साथ ही अभिभावकों को भी ऐसे कदम उठाने की जरूरत है, कि उनके बच्चे इंटरनेट के जरिए होने वाले उनके प्रति अपराधों से बचें रहे।
ऑनलाइन क्लासेज का नुकसान
विशेषज्ञ बच्चों के मोबाइल पर जरूरत से ज्यादा समय बिताने के लिए कोरोना समय में शुरू हुई ऑनलाइन क्लासेज को भी मानते हैं। वो ऐसा समय था जब बच्चों की पढाई़ की चिंता में जिन बच्चों के पास मोबाइल नहीं थे, अभिभावकों को उन्हें भी मोबाइल दिलवाना पडा।़ दिन के पांच से ज्यादा घंटे बच्चे क्लासेज के बहाने इंटरनेट पर ही बिताने लगे और इंटरनेट तक आसान पहुंच ने उन्हें दुनिया की दूसरी लत से जोड़ दिया।
साइबर बुलिंग से बचाएं
यूनेस्को के मुताबिक ‘साइबर-बुलिंग’ से प्रभावित होने वाले बच्चों और किशोरों का अनुपात ५ प्रतिशत से लेकर २१ प्रतिशत तक हैं। लड़कों की तुलना में लड़कियों की साइबर-बुलिंग होने की संभावना अधिक है। साइबर-बुलिंग यानि इंटरनेट पर किसी के बारे में आपत्तिजनक बात लिखना, उन्हें शर्मिंदा करना, धमकाया जाना या फिर परेशान किया जाना। अब १२ साल के बच्चे भी फेसबुक, इंस्टा वगैरह का उपयोग करने लगे हैं। उनके अकाउंट सबसे ज्यादा हैक होते हैं और उसके जरिए हैकर्स दूसरों की साइबर बुलिंग करते हैं। इस तरह बच्चे अपने इन अकाउंट्स के जरिए उनके प्रति होने वाले अपराधों का शिकार होने लगते हैं।
बहक जाते हैं बच्चे
साइबर-बुलिंग से पीड़ित टीन-एज बच्चों में नशीले पदार्थ लेने की, भीड़ में ना जाने की, स्कूल बंक करने की आदतें देखी जा रही हैं। इन बच्चों में पढाई़ या खेल में मन ना लगना, हेल्थ पर बुरा असर होने की संभावना अधिक रहती हैं। साइबर-बुलिंग की वजह से आत्महत्याओं के प्रकरण भी सामने आए हैं। बच्चों का वास्तविक दुनिया, उसकी उम्मीदों, सपनों और आकांक्षाओं से संपर्क कट जाता है।
इन घटनाओं पर यूनीसेफ का मानना है कि बच्चों को अब पहले से ज्यादा हमदर्दी की जरूरत है। उनके साथ दोस्तों की तरह पेश आना होगा। उनकी बात सुननी होगी।
कई तरह के हैं शोषण
स्मार्टफोन हाथ में है तो बच्चे अनजाने में पिक्चर्स शेयरिंग के गेम भी खेलते हैं, तो यौन-शोषण की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। वहीं मोबाइल गेम में अधिक समय बिताने वाले बच्चे कई बार ठगी का शिकार भी होते हैं। बच्चों को अब अक्सर अभिभावकों के गूगल पे, पेटीएम, फोन पे के पासवर्ड पता होते हैं, ऐसे में गेम के नाम पर उनसे पैसा ठगने के मामले भी बढ़ते जा रहे हैं। वहीं पोर्नोग्राफी साइट तक बच्चों की पहुंच बेहद आम हो चुकी है। जहां ब्लैकमेलिंग जैसे अपराधों का शिकार भी बचपन होने लगा है।
यह हैं आंकड़े
(नेशनल ट्रस्ट सर्वे के अनुसार)
– देश में ८ से १२ साल तक के बच्चे प्रतिदिन औसतन ४ घंटे ४० मिनट तक इंटरनेट का उपयोग कर रहे हैं।
– टीन-एज बच्चे प्रतिदिन ७ घंटे २२ मिनट इंटरनेट पर बिता रहे हैं।
– ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के ३७‧१५ प्रतिशत बच्चे अक्सर स्मार्ट फोन के उपयोग के कारण एकाग्रता की कमी से जूझ रहे हैं।
– २३‧८० प्रतिशत बच्चे सोने से पहले बिस्तर पर रहते हुए स्मार्ट फोन का उपयोग करते हैं। इसका बच्चों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
– एनसीपीसीआर के अध्ययन के आधार पर बच्चों के लिए खेल के मैदान की जरूरत है।
इन लक्षणों पर ध्यान दें अभिभावक।
– बच्चों में याददाश्त कमजोर होना, हर बात भूल जाना।
– पढ़ने-लिखने या एकाग्रता वाले कामों में ध्यान न लगा पाना।
– हर समय परेशान रहना या चिड़चिडाप़न होना।
– सिरदर्द रहना, आंख का कमजोर होना, उदास रहना।
– १२ से १४ वर्ष तक के बच्चों में नर्व, स्पाइन और मसल्स की समस्याएं होना।
– वजन बढ़ना, थकान होना जैसी दिक्कतें होना।
– हेडफोन या ईयरफोन का इस्तेमाल से कानों में दबाव का बने रहना।
– जरा सी बात में एग्रेसिव हो जाना।
– मोबाइल या लैपटॉप के बिना बेचैन रहना। किसी भी तरह उन्हें हासिल करने की जिद पकड़ना।
यह उपाय अपनाएं
– अभिभावकों के लिए जरूरी है कि वे भी इंटरनेट फ्रेंडली रहें। बच्चों के मोबाइल में सर्च-हिस्ट्री ऑन करके रखें। ताकि जरूरत पड़ने पर देखा जा सके कि वे इंटरनेट पर क्या सर्च कर रहे हैं। आजकल कई ऐसे एप आते हैं जिन्हें इंस्टॉल करने पर बच्चों की पूरी एक्टिविटी या सर्च की हिस्ट्री आपके मेल पर आ जाती है। या एप के जरिये आप पता लगा सकते हैं कि बच्चे ने कब क्या सर्च किया या इंटरनेट पर वो किस वेबसाइट पर कितनी देर रहा। इसके साथ ही विन्डोज या आई‧ओ‧एस‧ डिवाइस को किड्स-सेफ बनाने का अपना एक तरीका होता है, जिसे आपको एक्सपर्ट्स, इंटरनेट या दोस्तों की मदद से सीख लेना चाहिए।
– जहां तक हो सके, उन्हें मोबाइल के साथ अकेला ना छोड़े। मोबाइल में पोर्न साइट्स को ब्लॉक भी कर सकते हैं।
– बच्चे की उम्र १८ साल से कम है तो उसे फेसबुक, इंस्टाग्राम या किसी भी चैट एप पर अकाउंट बनाने से साफ मना कर दें। ध्यान रहे, उसके मोबाइल में कोई चैटिंग एप ना हो।
– बच्चों के दोस्त बनें और उनकी परेशानी को सुनें। परेशान दिखाई दे रहे हैं तो जानने की कोशिश करें कि वे किसी साइबर-क्राइम का शिकार तो नहीं हो गए हैं। यदि ऐसा है तो पुलिस की मदद लें।
– बच्चा ऑनलाइन हिंसा का शिकार हो रहा है तो साइबर क्राइम थानों पर मौजूद स्पेशलिस्ट की मदद लें।
– बच्चा मोबाइल या इंटरनेट एडिक्ट है तो साइकोलोजिस्ट के पास जरूर ले जाएं। काउंसलिंग के जरिए आप उसे इंटरनेट से दूर कर सकते हैं।
– गैजेट हाइजीन की आदत अपनाएं। जैसे घर में बड़े-बच्चे सभी निर्धारित समय में मोबाइल बंद कर दें। बड़े जब मोबाइल पर समय बिताते हैं तो बच्चे भी ऐसा ही करते हैं।
– शाम से ही बच्चों से मोबाइल से दूर रहने के लिए तैयार करें। ताकि रात तक वे एक अच्छी नींद के लिए तैयार हो जाएं।
– इंटरनेट के जरिए बच्चों में क्रिएटिविटी की आदत डालें, क्रिएटिविटी बच्चों को गलत करने या सोचने का वक्त नहीं देती।
– बच्चों में स्कूल कोर्स से अलग भी किताबें पढ़ने की आदत डालें। उम्र के मुताबिक आप किताबें चुन सकते हैं।
– बच्चा अकेला है तो शाम के कुछ घंटे उसके साथ खेलें या जो उसे पसंद हो उस एक्टिविटी में उसका साथ दें। ताकि वे मोबाइल से डाइवर्ट हो सकें।
– काम के बीच से वक्त निकालकर एक या दो दिन के लिए बिना मोबाइल अपने आसपास की जगहों पर घूमें। बच्चों में इस तरह मोबाइल से दूरी की आदत डाली जा सकती है।
क्या कहते हैं साइकोलोजिस्ट
साइकोलोजिस्ट डॉ‧ मनीषा गौड़ कहती हैं कि कोरोना के बाद के दुष्प्रभावों में से एक बच्चों में बढ़ता इंटरनेट एडिक्शन भी है। हेल्पलाइन नंबर पर सबसे ज्यादा शिकायत बच्चों के इंटरनेट उपयोग से उनके चिड़चिड़े स्वभाव की आती है। हम बच्चों के साथ अभिभावकों की भी काउंसलिंग कर रहे हैं। अभिभावक यदि दोनों वर्किंग हैं तो बच्चों पर दुष्प्रभाव ज्यादा देखे जा रहे हैं। क्योंकि सिंगल फैमिली में अभिभावक अपनी जॉब में व्यस्त हैं तो वे बच्चों को मोबाइल के साथ छोड़ देते हैं। जब बात बिगड़ जाती है, तब अचानक मोबाइल छिनने लगते हैं, इससे बच्चों में गुस्सा पनपने और उनके गलत कदम उठाने के केस भी बढ़ने लगते हैं। इसके लिए हम अभिभावकों को स्टेप बाय स्टेप इस लत को छुडाऩा सिखाते हैं। जैसे –
– बच्चों को वक्त दें, उनके साथ उनके दिन के रूटीन पर बात करें, अपना रूटीन शेयर करें।
– किसी आउटडोर गेम में उसकी रूचि है तो संबंधित गेम्स एकेडमी में उसका एडमिशन करवा सकते हैं।
– बच्चे अपनी किशोरावस्था की ऊर्जा यदि मैदान में खेलने में लगा देते हैं तो उनके गुस्सैल स्वभाव या चिड़चिड़ेपन को छुडाय़ा जा सकता है।
यह एक डिसऑर्डर
अब साइकोलोजिस्ट मान रहे हैं कि मोबाइल, इंटरनेट और ऑनलाइन गेमिंग की लत अब एक गंभीर डिसऑर्डर बन चुकी है। बहुत से किशोरों में यह लत नशे जैसी होती है। एक रिसर्च में पाया गया है कि ११ से १८ साल के बच्चों पर इसका सबसे ज्यादा असर देखने को मिलता है। बहुत ज्यादा ऑनलाइन गेम खेलने वाले बच्चे को अगर गेम न खेलने दिया जाए तो उनमें घबराहट होने लगती है। इस कारण कई बार आत्मघाती बन जाते हैं। इससे जुड़ी एक खबर हाल ही में देखने को मिली जब एक मां ने पबजी गेम खेलने से बच्चे को मना किया तो उसने मां की ही हत्या कर दी।
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तस्नीम खान