जिंदगी की जीत में यकीन रखते थे शैलेन्द्र
सैकड़ों बेमिसाल खूबसूरत नगमें और हर नगमा एक से बढ़कर एक। रजतपट पर उन्हें फिल्माए बरसों बीत गए पर लोगों के दिलों में आज भी उसी तरह धड़कते-गूंजते हैं। आधे दशक से ज़्यादा वक्त भी जिन्हें कभी भुला नहीं पाया, ऐसे हिन्दी सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ गीतकार शैलेन्द्र ने पचास-साठ के दशक में हिन्दी फिल्मों के लिए इतने उम्दा गीत रचे कि वे पर्दे की छवि से बाहर निकलकर आम लोगों के दिलों में राज करने लगे। एक पूरी पीढ़ी ने उन्हें साथ-साथ जिया और बाद की पीढ़ियां भी उस जादू से अछूती नहीं रह सकीं। इस साल २०२३ में उनका जन्म शताब्दी वर्ष है।
आज के समय में भी कौन ऐसा होगा, जिसने कभी शैलेन्द्र के उन शानदार गीतों की मखमली पंक्तियों को गुनगुनाया नहीं होगा। शैलेन्द्र का अब भी कोई सानी नहीं। कई कद्रदानों को तो उनके गीतों के शब्द-दर-शब्द याद हैं। सिर्फ गीत ही नहीं, उनकी बनाई फिल्म ‘तीसरी कसम’ हमारे समय की क्लासिक कृति है। साधारण शब्दों में असाधारण कह जाने वाले और देर तक भीतर गूंजते रहने वाले सरताज गीतों की एक भरी-पूरी फेहरिस्त उनके नाम है। उन्होंने दो दशकों में करीब पौने दो सौ फिल्मों के लगभग आठ सौ बेहतरीन गीत लिखे।
जन-जीवन से गहरा सरोकार रखने वाले मनुष्यता से भरे-पूरे शैलेन्द्र को जिदगी की जीत में पक्का और निर्विवाद यकीन था। ‘तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत में यकीन कर, अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर‧‧‧’ जैसी कालजयी पंक्तियां रच देने वाले गीतकार की लोकप्रियता का जादू इसीलिए आम ओ खास के सिर चढ़कर बोलता है कि उनका नजरिया बिल्कुल साफ-साफ था। खांटी तेवर का जीवन जीते हुए कबीर और मीरा की परम्परा का निर्वाह करने वाले शैलेन्द्र जिंदगीभर स्टारडम से दूर खालिस और खरे ‘आदमी’ बने रहे। वे अपनी मिट्टी और अपने लोगों से सीधे तौर पर जुड़े हुए थे।
आम लोगों की खस्ताहाल जिंदगियों में वे शिद्दत से रचे-बसे थे। उनकी छोटी-छोटी खुशियों, दुःख-तकलीफों, संत्रासों और उनके अभावों के सिर्फ दृष्टा भर नहीं, भोक्ता भी थे। उनका अपना निजी अभावपूर्ण जीवन और संघर्ष उनके गीतों में साफ-साफ दिखाई देते हैं। उनकी रचनाएं वहीं से खाद-पानी पाती रहीं। आम आदमी के दुःख-दर्द की छाप उनके गीतों में बरबस आती है और इसीलिए वे लोगों की जुबान पर आसानी से चढ़ते रहे। ‘सुनकार’ को लगता है कि यह गीत तो जैसे उसी के लिए लिखा गया है। वह उन शब्दों में अपने जीवन को देखने लगता है। ‘सुनकार’ और लेखक के जीवनानुभव इसी एक बिंदु पर एकाकार हो उठते हैं।
वे आजीवन प्रगतिशील मूल्यों की तरफदारी करते हुए मनुष्य और मनुष्यता के पक्ष में बड़ी मजबूती से खड़े रहे। उनके पूरे रचनात्मक कैनवास पर प्रगतिशील चेतना में उनकी अद्वितीय प्रतिबद्धता झलकती है। इन्हीं मूल्यों की वजह से प्रगतिशील लेखक संघ और इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन इप्टा से उनका जुडाव़ बना रहा। वे नाम, फेम या पैसों के लिए फिल्मी दुनिया में नहीं, बल्कि अपने मित्र राज कपूर के आग्रह पर बड़े बेमन से आए थे। गुलजार के शब्दों में कहें तो शैलेन्द्र जैसा दूसरा कोई नहीं हुआ। पूरी दुनिया उनकी कर्जदार रहेगी।
गीत-संगीत की दुनिया के नायाब सितारे शैलेन्द्र का मूल नाम शंकर दास था और उनका जन्म ३० अगस्त १९२३ को पाकिस्तान के रावलपिंडी में हुआ था। जन्म के थोड़े दिनों बाद उनका परिवार मथुरा आ गया। वहीं उनकी माता पार्वतीदेवी का निधन हो गया। मां से उन्हें बहुत स्नेह होने से उनका ईश्वर पर भरोसा हमेशा के लिए उठ गया। वे पढाई़ में इतने तेज थे कि इंटर में पूरे उत्तर प्रदेश में तीसरे स्थान पर अव्वल रहे। उन्हें शुरू से ही डफली बजाने और कविताएं लिखने का शौक था। उनकी कविताएं हंस, साधना, नया साहित्य और नवयुग जैसी बड़ी पत्रिकाओं में छपतीं लेकिन घर में फाकाकशी के हालात थे। मुफलिसी के दौर में उन्हें छोटी उम्र से ही काम करना पडा।़ उन्होंने १९४२ में माटुंगा में रेलवे के मेकेनिकल सेक्शन में नौकरी की।
नौकरी से घर तो जैसे-तैसे चल जाता लेकिन उनके बेचैन मन का कोई ठौर नहीं था। उस दौर में देश में स्वतंत्रता के लिए आंदोलन चल रहे थे और नए देश के निर्माण का सपना करवट ले रहा था। इन सबका उनके किशोर मन पर गहरा असर पडा।़ वे बेचैन हो जाते और इसी बेचैनी को शब्दों में ढालकर कविताएं लिखते। ‘करो या मरो’ के नारे के साथ गांधीजी के आह्वान पर जब पूरा देश असहयोग आंदोलन में शामिल हुआ तो शैलेन्द्र भला पीछे कैसे रहते। उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और इसके कारण उन्हें जेल जाना पडा।़ रेलवे की नौकरी में उनका मन कम ही लगता था। जेल से छूटने के बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी।
मुशायरों और कवि सम्मेलनों के मंच से पढ़ी गई उनकी कविताएं श्रोताओं को खूब लुभातीं। वे जमकर दाद और तालियां बटोरते। उनकी एक कविता ‘जलता है पंजाब’ खूब लोकप्रिय हुई और उन्हें जगह-जगह बुलाया जाने लगा। ऐसे ही एक दिन यह कविता सुनते हुए राज कपूर को उनका अंदाज इतना भाया कि उन्होंने अपनी फिल्मों के लिए गीत लिखने का प्रस्ताव उन्हें दिया। राज कपूर की पारखी नजर ने उनमें फिल्म जगत के शीर्षस्थ गीतकार की संभावना को पहचान लिया। लेकिन शैलेन्द्र ने उनके प्रस्ताव को यह कहकर सिरे से खारिज कर दिया कि मैं अपनी कविता का कारोबार नहीं करता। राज साहब की नजर में उनके लिए इज्जत और बढ़ गई। उन्होंने हंसकर अपना विजिटिंग कार्ड उनकी जेब में डाल दिया कि जब कभी आपका मन हो तो बताइयेगा।
आजादी के बाद देश बदल रहा था लेकिन बहुत कुछ ऐसा था जो उन्हें टीस दे जाता। आजादी से पहले मनुष्य और मनुष्यता के हक में जो सपने देखे-दिखाए गए थे, वैसा भारत अभी भी दूर था। मनुष्यता का मजबूत नाता पार्टीशन और उसके बाद की घटनाओं से बिखरने लगा था। मजदूरों और किसानों का संघर्ष वे देख रहे थे। देश में गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और बेहाल व्यवस्था उनके सामने थी। यह सब देखकर उनका संवेदनशील मन रो पड़ता। ‘सीधी-सी बात न मिर्च-मसाला, दिल की बात सुने दिलवाला‧‧‧’ यही उनका रचना कर्म रहा। सामाजिक विसंगतियों, गरीबी और शोषण के खिलाफ अपने हक और रोटी के लिए संघर्ष उनकी रचनाओं में खुलकर आता है। ‘गरमागरम रोटियां, कितना हसीन ख्वाब है‧‧‧’ यह पंक्तियां वे ही लिख सकते थे, जिन्होंने अपने घर में इसे भुगता हो। वे हमेशा आम आदमी को इस देश का निति-नियंता मानते थे – ‘होंगे राजे-राजकुंअर, हम बिगड़े दिल शहजादे, हम सिंहासन पर जा बैठें जब-जब करें इरादे‧‧‧’
कुछ दिनों बाद शैलेन्द्र को अपनी पत्नी की प्रसूति के लिए रुपयों की जरूरत पड़ी तो वे राज कपूर के दफ्तर गए और पांच सौ रुपए उधार ले आए। जब उधार की रकम वापस करने गए तो राज साहब ने यह कहते हुए मना कर दिया कि मैं धंधा नहीं करता। आप चाहें तो इन रुपयों की एवज में बरसात के लिए दो गीत लिख दीजिए। इस बार वे उन्हें मना नहीं कर सके। उन्होंने बरसात का टाइटल गीत लिखा – ‘बरसात में हमसे मिले तुम सजन, तुमसे मिले हम‧‧‧’ फिर तो वे हिन्दी फिल्मों में सर्वाधिक मुखडा ़गीत लिखने वाले बेजोड़ गीतकार साबित हुए। इस तरह शुरू हुआ दोनों की दोस्ती और फिल्मी गीतों का सुरीला सफर। राज कपूर उन्हें अक्सर रूसी साहित्यकार ‘पुश्किन’ के नाम से बुलाते थे।
‘घर-बार नहीं, संसार नहीं, मुझसे किसी को प्यार नहीं‧‧‧आवारा हूं’, ‘चाहे मुझे कोई जंगली कहे‧‧’, ‘मेरे मन की गंगा और तेरे मन की जमुना, बोल राधा बोल, संगम होगा कि नहीं‧‧‧’, ‘भैया मेरे, छोटी बहन को न भुलाना‧‧‧’, ‘आई मिलन की बेला देखो आई‧‧‧’, ‘सबकुछ सीखा हमने, न सीखी होशियारी‧‧‧’, ‘होंठों पे सच्चाई रहती हैं, जहां दिल में सफाई रहती है। हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती है‧‧‧’, ‘दिल अपना और प्रीत पराई‧‧‧’ आदि उनके बेमिसाल फिल्म टाइटल रहे जिन्होंने लोकप्रियता के सारे रिकार्ड तोड़ दिए।
राज कपूर और शैलेन्द्र की जोड़ी ने फिल्मी दुनिया में धूम मचा दी। आवारा के सारे गाने हिट हुए पर ‘घर आया मेरा परदेसी‧‧’ ने तो कमाल कर दिया। संगम, कटी पतंग, जिस देश में गंगा रहती है, जंगली, दिल अपना और प्रीत पराई, छोटी बहन, सपनों का सौदागर, गाइड, श्री ४२०, हरियाली और रास्ता, आई मिलन की बेला, अनाड़ी, यहूदी, बूट पॉलिश, आह, बंदिनी, पतिता, दाग, काला बाजार और मेरा नाम जोकर जैसी दर्जनों फिल्मों में उन्होंने शानदार गीत लिखे और सिने प्रेमियों के दिलों पर राज करने लगे। क्रांति के गीतों में ‘आग’ लिखने वाले शैलेन्द्र जब प्रेम के गीत रचते हैं तो उन पर दुनिया झूमने लगती है। इतने सुमधुर, सरस, मुलायम और भावुक‧‧‧ तो कभी वियोग की तीव्र वेदना। कैसे एक ही शैलेन्द्र में अलग-अलग शैलेन्द्र रहते होंगे।
फणीश्वरनाथ रेणु ने बिहार के लोक अंचल को उकेरती कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ लिखी तो शैलेन्द्र ने उस पर फिल्म बनाने की ठानी। १९६१ में बहुत कम बजट के साथ ‘तीसरी कसम’ नाम से श्वेत-श्याम फिल्म बनना शुरू हुई लेकिन इसमें बहुतचुनौतियां थीं और पैसे की तंगी। पांच साल के लंबे वक्त में शैलेन्द्र ने इसे बड़े मन से बनाया। लेकिन फिल्म कई दिनों तक डब्बों में बंद पड़ी रही। कोई वितरक नहीं मिल पा रहा था। इससे शैलेन्द्र अकेले पड़कर तनाव में आ गए। उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया और इसी दौरान १४ दिसंबर १९६६ में दिल का दौरा पड़ने से वे चल बसे। उनके निधन के बाद इस फिल्म को अपार सफलता मिली लेकिन शैलेन्द्र उसे बड़े परदे पर एक बार देख तक नहीं सके। यह फिल्म आज भी क्लासिक है और कला की उम्दा बानगी।
शैलेन्द्र चले गए पर उनके अमर गीत हम सब की आत्मा में शामिल हैं। उनके शब्द हमारे कानों में गूंजते हैं। उन्हीं के शब्दों में ‘सजन रे झूठ मत बोलो‧‧‧खुदा के पास जाना है, न हाथी है न घोडा ़है, वहां पैदल ही जाना है‧‧‧’ सहज-सरल, सादगी से भरे हुए, किसानों-मजदूरों, मजलूमों की आवाज का पर्याय बन चुके जनवादी और प्रगतिशील गीतकार शैलेन्द्र जैसा कोई दूसरा नहीं हो सकता। वे अद्वितीय थे और रहेंगे। उनके जैसा उम्दा रचयिता और सच्चा इंसान, अब कभी नहीं आएगा।
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मनीष वैद्य