धर्मो रक्षति रक्षितः
पेड़ को काटे बिना लकड़ी नहीं मिल सकती, पहाड़ों को खोदे बिना खनिज नहीं प्राप्त हो सकता और खरपतवार व हानिकारक कीटों को मारे बिना फसल नहीं उग सकती और हमें भोजन नहीं मिल सकता। अब तय करना मनुष्य का काम है कि किसे खिलाना है, किसे मारना और किसे जीवित रखना है। इसी को धर्म-संकट कहते हैं। परंतु, अंततः धर्मो रक्षति रक्षित। जाने-माने पौराणिक कथाकार और लेखक की कलम से विशेष लेख –
बीमारी, क्षय और मृत्यु के दृश्य देखने के बाद, शाक्य वंश का राजकुमार सिद्धार्थ गौतम अपना राज्य, पत्नी और बेटे को त्यागकर जंगल चला गया, ताकि वहां उसे जीवन की असंतुष्टि के लिए उत्तर मिल सकें। साधुओं ने उसे उपवास करने की सलाह दी। कई दिनों के उपवास के बाद गौतम इतना दुर्बल हुआ कि वह हिल भी नहीं सकता था। वह अचेत हो गया। सुजाता नामक ग्वालिन ने कुछ खीर खिलाकर उसे ताकत दी। गौतम-जो आगे जाकर बुद्ध बना- उसे इस प्रकरण ने सीख दी कि उपवास कोई समाधान नहीं है।
मनुष्यों के लिए भोजन आवश्यक है, लेकिन सुजाता की तरह वे खिला भी सकते हैं। भूख दिखाई नहीं देती, जबकि खाद्य पदार्थ दृश्य होते हैं। जीवन में हम भूख के बजाय खाद्य पदार्थों को अधिक महत्व देते हैं। भूख पीडा ़का कारण है; खाद्य पदार्थ हमें सुख देते हैं। हमें सुख की चाहत है, इसीलिए हम खाद्य पदार्थों के पीछे भागते हैं।
लेकिन भोजन के लिए हिंसा अनिवार्य हो जाती है। खाने के लिए हमें मारना ही पड़ता है। बाघ हिरनों को खाते हैं। हिरन घास खाते हैं। पेड़-पौधे तत्वों पर जीते हैं और जानवर पौधों व अन्य जानवरों पर। प्रकृति का नियम ही है कि जो खाता है, वह अंततः खाया भी जाएगा। मनुष्यों को रक्षक की भूमिका पसंद है, लेकिन रक्षा करने के अपने परिणाम होते हैं-यह इस जैन, बौद्ध और हिंदू लोक कथा से स्पष्ट है |
एक बाज एक कबूतर का पीछा कर रहा था। यह देखकर एक मनुष्य ने कबूतर को बचाना चाहा। बाज ने मनुष्य से पूछा, ‘अब मैं क्या खाऊंगा?’ मनुष्य ने तब उसे दूसरा कबूतर खाने को कहा। बाज ने फिर पूछा, ‘इस कबूतर को बचाने के लिए दूसरा कबूतर क्यों मरे?’ मनुष्य बोला, ‘फिर चूहा खा लो।’ बाज ने पूछा, ‘इस कबूतर को बचाना है, इसलिए चूहा क्यों मरे?’ बाज के प्रश्नों ने मनुष्य को अहसास दिलाया कि बाज को खिलाने हेतु किसी न किसी को मरना आवश्यक है। अंत में मनुष्य बोला, ‘लो, मुझे ही खा डालो।’
इस कथा में मनुष्य अहिंसक रहना चाहता है, लेकिन इस प्रयास में उसे बाज को उसके भोजन से वंचित रखना पड़ेगा। मनुष्य के हस्तक्षेप से बाज भूखा मर जाएगा। प्रत्यक्ष हिंसा को रोकने के लिए मनुष्य को अप्रत्यक्ष हिंसा का सहारा लेना पड़ता है। बाज को जीवित रखना है तो किसी न किसी को तो मरना ही होगा। अब तय करना मनुष्य का काम है कि किसे खिलाना है, किसे मारना और किसे जीवित रखना है। इसी को धर्म-संकट कहते हैं, जो मानवीय अस्तित्व का एक अभिन्न अंग है। पेड़ को काटे बिना लकड़ी नहीं मिल सकती, पहाड़ों को खोदे बिना खनिज नहीं प्राप्त हो सकता और खरपतवार व हानिकारक कीटों को मारे बिना फसल नहीं उग सकती और हमें भोजन नहीं मिल सकता।
यदि हम मारे बिना किसी को खिलाना चाहते हैं तो उसका एकमात्र तरीका अपने ही शरीर को भोजन के रूप में अर्पित करना है, जैसा कि इन कथाओं में हुआ। बौद्ध जातक कथाओं में आत्म बलिदान की ऐसी और भी कहानियां सुनने को मिलती हैं।
एक यात्री भूखा था जब उसे जंगल में कोई भक्ष्य पदार्थ नहीं मिला तो आग सुलगाकर वह अपने दुर्भाग्य को कोसने लगा। एक खरगोश को यात्री पर तरस आया और आग में कूद पडा,़ ताकि यात्री उसे खाकर अपनी भूख मिटा सके।
यह कथा अहिंसा का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है, जिसमें खरगोश ने खाने के बजाय खुद को खाए जाने दिया। जब तक हम खाएंगे, तब तक हमें मारना ही होगा। इसीलिए प्राचीन काल में अहिंसा के संधान में जैन मुनि आमरण उपवास किया करते थे। बौद्ध लोक साहित्य में जो प्राणी खुद को-दूसरों के भोजन के लिए अर्पित कर देते हैं चमत्कारी ‘बोधिसत्व’ कहलाते हैं। ये प्राणी दूसरों की क्षुधा के प्रति इतने संवेदनशील होते हैं कि अपनी देह तक की बलि चढा सकते हैं। यह थोडा असंभव और अवास्तविक प्रतीत होता है। वेद हमें पारस्परिकता की अधिक व्यावहारिक संभावना समझाते हैं।
ब्रह्मा ने अपनी संतानों को भोज पर आमंत्रित किया। खाना परोसे जाने पर उन्होंने संतानों से कहा कि तुम्हें कोहनी मोड़े बगैर ही खाना होगा। भला यह कैसे संभव होता? जिन संतानों ने खाने से इनकार किया वे शिलाओं में परिणत हो गए। जिन्होंने उंगलियों से खाना खाने के लिए अपने अंगों को फैलाया वे वृक्ष हो गए। जिन्होंने सिर मोड़कर मुंह से खाना खाने का प्रयास किया वे बन गए पशु। लेकिन जिन संतानों ने कोहनी मोड़े बिना, अपने हाथों के उपयोग से दूसरों को खिलाया और दूसरों की मदद से खुद खाया, वे मनुष्य बन गए।
यह कथा हमें यज्ञ के स्रोत के बारे में भी बताती है। यज्ञ मनुष्य दूसरों की चिंता करने में सक्षम बनाता है। यज्ञ के माध्यम से हम खिलाते हैं और खिलाए भी जाते हैं। जब खाने वाला यज्ञ करता है तो उसपर हिंसा का बोझ चला जाता है। पशु जगत में मारने वाला खाता भी है। लेकिन यज्ञ में मारने वाला केवल खिलाता है। इस प्रकार खिलाने की सकारात्मक क्रिया मारने की नकारात्मक क्रिया को निष्फल कर देती है। आइए ‘शतपथ ब्राह्मण’ की सर्वाधिक प्रसिद्ध उस वैदिक कथा को जानते हैं, जिससे धर्म की धारणा स्थापित होती है।
एक मनुष्य ने नदी से छोटी मछली को अपने कमंडलु में डालकर बड़ी मछली से सुरक्षित रखा। छोटी मछली जब बड़ी हुई, तब मनुष्य ने उसे नदी में लौटा दिया। कई वर्षों बाद जब प्रलय आया, तब इसी मछली ने- जो अब विशाल बन चुकी थी-उस मनुष्य को डूबने से बचाया।
यह कहानी ‘मत्स्य न्याय’ की उस वैदिक धारणा को इंगित करती है, जिसके अनुसार जीवित रहने के लिए बड़े प्राणियों को छोटे प्राणियों को खाना पड़ता है। प्रकृति में अधिकांशतः यही होता है। हमारे वेदों को हिंसा, उपभोग और सुरक्षा में गहरे संबंध के बारे में अच्छी तरह से जानकारी थी। जीवित रहने के लिए परभक्षी शिकार को मारता है। जानवर अपने क्षेत्र की रक्षा और साथी हासिल करने के लिए प्रतिद्वंद्वियों से लडा ़करते हैं। यह संस्कृति ही है, जो हमें अलग तरह से जीना सिखाती है। मनुष्यों में यह क्षमता है कि ‘मत्स्य न्याय’ को पलट सकें। इसलिए, उस व्यक्ति ने हस्तक्षेप कर छोटी मछली को बचाया है। यह मानवीय क्षमता प्रकृति से संस्कृति तक के परिवर्तन की संकेतक है, जहां बड़े, छोटों की मदद करते हैं। यह धर्म है।
कथा के पहले भाग में व्यक्ति ने छोटी मछली की मदद की, दूसरे भाग में बड़ी मछली ने उसकी मदद की। इस प्रकार ऋण चुकाया गया। ऋण चुकाना भी धर्म का हिस्सा है। लेकिन क्या बड़ी मछली और छोटी मछली एक थे? क्या पहले और दूसरे व्यक्ति एक थे? कहा नहीं जा सकता। लेकिन उत्तर मायने नहीं रखते, क्योंकि धर्म से सहकार्य का वातावरण बनता है। कोई न कोई हमेशा दूसरों की मदद कर रहा है। जो लोग शक्तिशाली रहते हुए मदद करते हैं, वे शक्तिहीन बनने पर मदद किए जाने की अपेक्षा कर सकते हैं। धर्म से धर्म उत्पन्न होता है। इसी लिए यह वाक्यांश निर्माण हुआ -‘धर्मो रक्षति रक्षितः’।
– देवदत्त पटनायक