षडऋतु और छह स्वाद!
देश-काल और ऋतुओं के अनुसार भोजन करना ही शरीर को स्वस्थ और मन का मूल मंत्र है। कुछ सलाहें जाने-माने शिक्षाविद और खाद्य समीक्षक की –
आयुर्वेद के अनुसार वर्ष के बारह महीनों को छह ऋतुओं में विभाजित किया गया है और इनका वर्गीकरण ‘आदान’ और ‘ग्रहण’ दो श्रेणियों में किया गया है। आदान काल में प्रकृति हमारे शरीर को भरपूर मात्रा में पोषक तत्व संचित करने देती है। इसके विपरीत ग्रहण काल में हमारे शरीर में संचित ऊर्जा तथा स्फूर्तिदायक तत्वों को प्रकृति वापस ले लेती है। यह पारंपरिक जन-वैज्ञानिक ज्ञान अनुभव सिद्ध है। शरद, शिशिर, हेमंत और वसंत आदान काल हैं और ग्रीष्म व वर्षा ग्रहण काल हैं। आप बारह मासा के ऋतु चक्र में, भारतीय पंचांग के अनुसार महीनों को जुगलबंदी जैसे समूह में बांट सकते हैं और फिर देश-काल के अनुसार भोजन कर शरीर को स्वस्थ और मन को उत्फुल्ल रख सकते हैं।
प्रकृति के अनुकूल हो आहार
यहां एक बार और ध्यान देने की है। हमारे शास्त्रों में मनुष्य को शारीरिक बनावट और मानसिक प्रवृत्तियों- व्यक्तिगत रुझानों-के अनुसार तीन प्रकार का बतलाया गया है-सात्विक, राजसिक तथा तामसिक। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि जिस तरह मनुष्य तीन प्रकार के होते हैं, वैसे ही खाद्य पदार्थ भी अपने गुण-प्रभाव के अनुसार इन्हीं तीन प्रकार के होते हैं। हमें यह समझने की जरूरत है कि अपनी शारीरिक संरचना और स्वभाव के अनुकूल आहार ही सेहतमंद रख सकता है। यदि हम अपनी प्रकृति के प्रतिकूल आचरण या आहार करते हैं तो वह नुकसानदेह हो सकता है। प्रकृति का सूक्ष्म रूप मानव शरीर और मन हैं तो विराट रूप समस्त पर्यावरण और परिवेश।
आगे बढ़ने से पहले एक और महत्वपूर्ण बात को रेखांकित करने की जरूरत है। मानव शरीर और खाद्य पदार्थों का एक दूसरा त्रिकोणीय वर्गीकरण आयुर्वेद में मिलता है- कफ, पित्त और वात वाला। इनका वर्णन दोषों के रूप में होता है, जिनके असंतुलित होने से व्याधियां और रोग शरीर को घेर लेते हैं। स्पष्ट है कि इन तीन दोषों के मिश्रण भी मनुष्यों तथा खाद्य पदार्थों में मिलते हैं। इसी संदर्भ में उपनिषद का वह सूत्र वाक्य मार्गदर्शक बन जाता है-आत्मानम् विद्धि! (अपने को जानो)।
ऋतु चक्र के अनुसार ये नैसर्गिक दोष कुपित, उत्तेजित, असंतुलित होते हैं इनके निराकरण के लिए ही खान-पान में पारंपरिक निर्देश और निषेध किए जाते रहे हैं।
सबसे दिलचस्प बात यह है कि हमारे पुरखों ने इस ज्ञान को इस हद तक आत्मसात् कर लिया था कि गांव-देहात की रसोई में भी पकाए जाने वाले व्यंजन मौसमी होते थे! हर पर्व-त्यौहार के लिए जो अनुष्ठान निर्धारित थे उनमें यही संदेश निहित रहता था कि अब खान-पान बदलने का समय आ गया है। दशहरे से दीपावली तक गरिष्ठ पकवान तथा मिष्ठान्न बेझिझक खाए-खिलाए जाते थे। तिल, गुड़ व घी का प्रयोग सामर्थ्यानुसार होता था। चिक्की, पट्टी, रेवड़ी, गजक, लड्डू, रोट इसी का उदाहरण हैं। होली के साथ जाडा विधिवत विदा किया जाता था। गुझिया के साथ-साथ ठंडाई प्यास बुझाने की तैयारी अनायास कराती थी। याद रहे कि देश के विभिन्न अंचलों में मौसम हमेशा एक सा नहीं होता। कहीं षडऋतु का पूरा वैभव प्रकट होता है तो अन्यत्र वर्षा का विलास सम्मोहक होता है, जाडा नामक मात्र का। तदनुसार तटवर्ती भारत में या दक्षिणी भारत में ऋतुओं के अनुसार स्थानीय व्यंजन पकाए जाते हैं। जब जठराग्नि मंद हो उसे उद्दीप्त करने के लिए क्षुधा-वर्धक खटास, लवण युक्त चटनी-अचार को भोजन में शामिल करते हैं। वर्षा में उदर रोगों से बचाव के लिए तथा त्वचा की रक्षा के लिए कटु, तिक्त स्वाद का पुट लाभदायक होता है। बंगाल, उड़ीसा में अरांधन के दिन खाना नहीं पकाया जाता- रसोई को भली भांति साफ कर यह सुनिश्चित किया जाता है कि बचा-बासी भोजन निरापद रहे। पकाळ भात या पांथा भात-हल्का खमीर चढा रात का बाकी बचा रहा भात सुपाच्य समझा जाता है। क्या अमीर और क्या गरीब, नींबू के अचार की फांक, भाजा या बोड़ी के साथ इसका आनंद लेते हैं।
भारतीय भोजन की विशेषता उसका षडरस होना है, अर्थात उसमें छह स्वाद होते हैं। षडऋतुओं का घनिष्ठ नाता इन छह स्वादों से है। बुनियादी बात यह है कि नमकीन, मीठे, खट्टे, कडुए, कसैले एवं तीखे स्वाद आप अपनी सामर्थ्य तथा मनमाफिक अलग-अलग पदार्थों से हासिल कर सकते हैं – इमली, अमचूर, नींबू, अनारदाना आदि से खटाई तो मिठास गुड़, शक्कर, शहद, सूखे फलों से! हर प्रदेश के खान-पान में यह स्थानीय पसंद दर्शनीय है।
मकर संक्रांति हो या वसंत पंचमी, गणेश चतुर्थी, शिवरात्रि, बैसाखी-बिहू या गुढी पडवा, पोंगल, उगादी, ओणम-हमारे पंचांग में नैवेद्य-प्रसाद के रूप में जो पारंपरिक व्यंजन बनाए जाते हैं वे अनायास ही यह स्वास्थ्यप्रद संतुलन साधते हैं। इस विरासत का तिरस्कार ही हमारे मानसिक तनाव तथा शारीरिक थकान का मुख्य कारण है।
यदि हम कालनिर्णयानुसार आहार निर्णय करें तो ‘सर्वे संतु निरामयाः’ का स्वप्न साकार कर सकते हैं।
प्रो. पुष्पेंद्र पंत