दरीचा गुलजार है
जिंदगी में बहुत तनाव है। इसे कम करना है तो पंछियों से जान-पहचान बढाइ़ए। कैसे? बता रही हैं लेखिका अपने अनुभवों से।
जिन दिनों कोरोना महामारी ने पूरी दुनिया में तालेबंदी कर रखी थी‧‧‧ एक दूसरे के घर आना-जाना बंद था। उन्हीं दिनों मैंने सोचा, दोस्त-रिश्तेदार घर नहीं आ सकते, पर उन्मुक्त गगन में उड़ते पंछियों की मेहमाननवाजी तो की जा सकती है। मैंने एक बर्ड-फीडर मंगवा कर खिड़की पर टांग दिया। पानी भरकर एक वॉटर-फीडर भी लटका दिया। हमने बचपन से गौरेयों को चावल चुगते देखा था। ‘चुनमुन करती आई चिड़िया, दाल का दाना लाई चिड़िया’ गीत सुनते हुए हम बड़े हुए हैं, लिहाजा घर में डब्बे में जो चावल थे, बर्ड-फीडर में भरकर टांग दिया। पर दो दिनों तक कोई चिड़िया पास नहीं फटकी। फिर मैं गूगल बाबा की शरण में गई, वहां पता चला बर्ड-फीडर में ज्वार-बाजरा डालने चाहिए। धान के प्रदेश उत्तरी बिहार में पली-बढ़ी मैंने कभी ज्वार-बाजरा देखे भी नहीं थे। चिड़ियों की बदौलत यह पहचान भी हुई।
ज्वार-बाजरा भरने के बाद मैं खिड़की पर टकटकी लगाये बैठी होती। अगले ही दिन एक गौरैया आई और मुआयना कर चली गई। मैं थोड़ी निराश हो गई, पर थोड़ी ही देर बाद गौरैया अपने जोड़े के साथ आई और दाना चुगने लगी। उन्हें देख मन आह्लादित हो गया। इन दोनों गौरैयों को इधर आते देख कई गौरैया आने लगीं। वे अपने बच्चों को लेकर आती और पूरे दिन बारी-बारी से उनके मुंह में दाना डालती रहतीं। अपने नन्हे डैने फड़फडात़े, छोटे-छोटे गुलाबी चोंच खोले ये नन्हे बच्चे बहुत प्यारे लगते। मैं पूरे समय उनकी तस्वीरें और वीडियोज लेती रहती। लॉक डाउन के दिनों में लोग परेशान थे, पर इन पंछियों का साथ मेरी आंखों को सुकून और मन को प्रसन्नता से भर रहा था।
पंछियों से पहचान
गौरैया को आते देख काले-सफेद परों वाला एक और पंछी आने लगा, जिसे हिंदी में ‘दहियर’ और अंग्रेजी में ‘मैगपाई रॉबिन’ कहते हैं। पर वह दाना नहीं खाता, पल दो पल के लिए ग्रिल पर बैठकर उड़ जाता। एक दिन मैंने खिड़की पर कुछ नमकीन रख दिए। मैगपाई रॉबिन बड़े मजे से नमकीन खाने लगा। फिर तो बुलबुल व मैना भी नियमित आने लगे। मैगपाई रॉबिन पालतू पंछी जैसा ही हो गया था। बेधड़क खिड़की से कूदकर कमरे के अंदर आ जाता। खिड़की खोलने से पहले ग्रिल पर बैठकर सुरीली तान में टेर लगाता। कभी खिड़की खोलती तो वह सामने वाले पेड़ पर बैठा होता। इतनी तेजी से पंख हिलाते उड़ कर आता, मानो छोटा बच्चा, मां को देख दौड़ते हुए आ रहा हो। वॉटर फीडर में छपक छैयां कर खूब नहाता भी। कभी-कभी तोतों का जोडा ़भी आ जाता। एक दिन मैंने बर्ड फीडर की प्लेट में हरी मिर्च रख दी। तोते को मिर्च बहुत पसंद है। पंजे में मिर्च दबाए लाल-लाल चोंच से मिर्च के बीज निकाल कर उसे खाते देखना बहुत आनन्ददायक लगता। गौरैया के साथ ही मैना, बुलबुल, रॉबिन भी अपने बच्चों को लेकर आते। खिड़की पर एक जगह दाना-पानी मिलने और बड़ी चिड़िया का डर न होने से यह जगह उन्हें बहुत पसंद आती। मेरा दरीचा सुबह से शाम तक गुलजार रहता।
मेरा पूरा खाली समय खिड़की के पास बैठे हुए ही बीतता। खिड़की के सामने ही एक पेड़ भी था। मेरी नजर पेड़ पर भी जाने लगी। एक दिन गहरे-पीले रंग का सुंदर सा पंछी दिखा, जिसे हिंदी में ‘सुनहरा पीलक’ और अंग्रेजी में ‘गोल्डन ओरियल’ कहते हैं। अब तक मैं खिड़की पर बैठी चिड़ियों की तस्वीरें मोबाइल से लेती थी। अबकी इस सुंदर पीले पंछी की तस्वीर लेने के लिए बरसों से बंद पडा ़DSLR कैमरा निकाला। अब मैं बर्ड फीडर से ज्यादा उस पेड़ को घूरने लगी। एक दिन उस पेड़ पर बड़ी सी काली चितकबरी चिड़िया दिखी। गूगल इमेज में डालकर सर्च करने पर पता चला, यह मादा कोयल है। चमकते गहरे काले रंग का नर कोयल होता है, जो मादा कोयल को आकृष्ट करने के लिए, सुरीली आवाज में कूकता है और जिसकी सुरीली तान संभवतः हर भारतीय ने बचपन से सुनी है। इस एक पेड़ पर मुझे गहरे नीले पंखों और लम्बी गुलाबी चोंच वाला किंगफिशर, पंखे की तरह पूंछ फैलाए छोटे से धूसर रंग का फैनटेल, नारंगी रंग के पंखों और बुलबुल जैसी कलगी वाला दूधराज, हरे रंग के पंख, गले के नीचे लाल धब्बे और मस्तक पर पीला तिलक लगाये, लोहार की धौंकनी की तरह ‘पुक पुक’ आवाज निकालता छोटा बसंता भी दिखा। एक दिन एक बड़े से सफेद चेहरे वाला उल्लू भी, जिसे सभी कव्वों ने जोर से ‘कांव-कांव’ कर भगा दिया। मुझे पता चला जैसे कुत्तों का इलाका होता हैं, वैसे ही चिड़ियों का भी चिह्नित क्षेत्र होता है। वे दूसरी प्रजाति की चिड़ियों को भगा देती हैं।
अब तक लॉक डाउन खत्म हो गया था और मैं कैमरा उठाये पास के मैन्ग्रोव्स में जाने लगी। वहां मुझे और भी कई तरह की चिड़ियां दिखीं। अब तक मैं सिर्फ भूरे रंग और पीले पैरों वाली मैना को ही जानती थी, पर अब तक सात तरह की मैना देख चुकी हूं-धूसर सर मैना, अबलक मैना, ब्राह्मणी मैना, गंगा मैना, मलबार मैना, प्रवासी गुलाबी मैना। तीन तरह की बुलबुल भी दिखीं – गुलदुम बुलबुल, सिपाही बुलबुल एवं श्वेत-कर्ण बुलबुल।
पेड़ों के झुरमुट में कई छोटी चिड़ियां नजर आतीं, टेलर बर्ड, सनबर्ड, बया, पीत-कंठ गौरैया, ऐशी प्रीनिया, प्लेन प्रीनिया, पिपिट्स आदि। सर्दी के दिनों में प्रवासी पंछी सफेद खंजन, पीत-वर्ण खंजन, ब्राउन श्राईक, लॉन्ग-टेल्ड श्राईक आदि नजर आए। लम्बी पूंछ वाला महालत पंछी भी दिखा, जिसे बाघ का डेंटिस्ट कहा जाता है-वह बाघ के दांतों के बीच फंसे मांस के टुकड़ों को निकाल देता है। बाघ मुंह खोले पडा ़रहता है। पंछी को कोई नुक्सान नहीं पहुंचाता‧ फंसे टुकड़े निकल जाने से बाघ को बहुत आराम मिलता।
तालाब या खाड़ी के पास जाने पर तरह तरह के जल-पंछी नजर आते। बगुले के कई प्रकार होते हैं, सात-आठ तरह के बगुले देख चुकी हूं। बडा ़और छोटा पनकव्वा ताड़ या नारियल के पेड़ पर पूरे पंख फैलाए, पंख सुखाते रहते। तीन तरह के किंगफिशर भी दिखे।
पहले मैं सिर्फ कव्वा ,मैना, कबूतर, गौरैया जैसे पंछियों को ही जानती थी, अब मुंबई जैसे कंक्रीट जंगल में सिर्फ घर के आस-पास ही पचहत्तर तरह के पंछी देख चुकी हूँ। सिर्फ थोडा सा ध्यान देने की जरूरत है। बीस-पच्चीस तरह के पंछी बहुत आसानी से दिख जाते हैं। पंछियों का संधान जारी है। दिली तमन्ना है कि नए नए पंछी दिखते रहें और यह आंकडा जल्दी ही सौ के पार पहुंच जाए।
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रश्मि रविजा