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एक कदंब गाथा अनोखी सी | पुष्पा भारती | A unique Kadamba saga | Pushpa Bharati

एक कदंब गाथा अनोखी सी

 

धर्मयुगके कालातीत संपादक धर्मवीर भारती ने बांद्रा स्थित अपने निवास साहित्य सहवासमें कदंब, सप्तवर्णी और फरद के पौधे लगाए थे। रोज उनकी देखभाल से वे लहलहा उठे। फिर क्या हुआ कि उनके निधन के बाद ये अचानक ठूंठ हो गए! भारती जी की पत्नी की संस्मरण यात्रा।

 

…साहित्य सहवास के चारों ओर बड़े करीने से हरियाली उग आई थी।…सहसा उनका वही भागवत प्रेम मन में हिलोरें लेने लगा और जाने कहां भटक-भटक कर ले आए कदंब का पौधा, खुद उसकी देख-रेख की। बॉलकनी में खड़े होकर उसकी बढ़त देखते और प्रसन्न होते रहते। कुछ वर्ष बाद जब उस वृक्ष में पहली बार फूल आए तो उनके आह्लाद का कोई ओर-छोर नहीं था। लरजती आवाज में दसियों मित्रों को निमंत्रण दिए गए-कदंब के फूल खिले देखने के लिए। मित्र ही नहीं, रास्ता चलते लोग भी ठिठकर फूल देखते थे। उन्हीं दिनों भारतीजी ने लिखी थी ‘कदंब पोखर’ कविता। एक दिन जहांगीर आर्ट गैलरी में लगी प्रदर्शनी से करीब पांच फुट लंबी और साढ़े तीन फुट चौड़ी कांगड़ा शैली की पेंटिंग खरीद लाए। रेशम के कपड़े पर बनाया कदंब का पेड़ है… पेड़ के नीचे तीन-चार गोपियां खड़ी हैं… उनके सामने पीत वसनधारी कन्हैया सहमे से खड़े हैं-सबकी तरफ पीठ किए जो खड़ी हैं वे शायद राधाजी हैं- रूठी हुईं।

…कदंब का यह वृक्ष धीरे-धीरे बहुत विशाल वृक्ष बन गया। खूब ढेर सारे बड़े-बड़े फूलों की शोभा देखते ही बनती थी। भारतीजी को कृष्ण से संबंधित ‘छितवन’ वृक्ष की याद आती-छितवन की छांह में नटवर नागर कृष्ण कन्हैया जब तमाम गोपियों के साथ शरत पूर्णिमा की रात में महारास रचा रहे हैं… दसियों जगह की खाक छानने के बाद पता चला की ‘सप्तवर्णी’ नाम से जाना जाने वाला यह पौधा दिल्ली की नर्सरी में उपलब्ध है। अविलंब लाया गया और अपनी स्टडी के पिछवाड़े से सटी जमीन पर रोप दिया गया। जैसी संवार की गई उससे वह भी शीघ्र पौधे से वृक्ष बन गया। हर शाख पर सैकड़ों पत्तियां ऐसे निकलतीं कि सात-सात पत्तियों का एक संपुट सा बन जाता और शरत ऋतु आते-आते उन पत्तियों के बीच में सैकड़ों कलियां फूट आतीं। शरत पूनो पर पूरा का पूरा वृक्ष नन्हें-नन्हे फूलों के गुच्छों से भर जाता था। महक ऐसी तेज और नशीली ‌कि सारे वातावरण को मदहोश बना दे। उस नशीली सुगंध का भरपूर आनंद लेने के लिए ‘शाकुंतल’ में रहने वाले हम सातों परिवार शरत पूर्णिमा की चांदनी में इमारत की छत पर इकट्ठा होते थे, बच्चियां नृत्य करती थीं;  कोई गाना गाता, कोई कविता सुनाता और सब मिलकर मेरी बनाई खीर खाते।

1956 की बात है। कोणार्क में सूर्य मंदिर के दर्शन के बाद जगन्नाथ मंदिर के रास्ते में हमने एक गांव में सड़क के दोनों ओर फरद के ऊंचे पेड़ लगे देखे, जिनपर लाल रंग के कटोरीनुमा फुल खिले थे। नीचे जमीन फूलों से पटी थी। मैंने ताजे-ताजे फूल बटोरकर आंचल में भर लिये और जगन्नाथ मंदिर पहुंचकर सीधे विग्रह पर बरसा दिए। भारतीजी को मेरी यह भंगिमा इतनी भा गई कि उसकी याद में फरद का वृक्ष भी लगाया गया। भारतीजी की कुछ लालच यह थी कि वृक्ष ऐसी जगह लगे, जहां घर में बैठे-बैठे हमें दिख सके। चूंकि साहित्य सहवास में बड़ा वृक्ष लगाने की जगह नहीं थी, इसलिए सामने वाली बिल्डिंग की पीछे वाली जमीन पर उसे रोप दिया। मौसम आने पर वही दहकते लाल-लाल फूल….। एक बार हमने देखा कुछ तोते इनमें चोंच डालकर रस पी रहे हैं। लाल-लाल फूल, हरे-हरे तोते ! ऐसा मनभावन दृश्य था कि भारतीजी ने सड़क की ओर खुलने वाली खिड़की तुड़वाकर वहां बड़े-बड़े कांच की पारदर्शी दीवार जैसी खिड़की बनवा दी; सुबह वहीं बैठकर चाय पीते और अखबार पढ़ते थे।

18 जुलाई, 1889 को भारतीजी को बहुत भयंकर दौरा पड़ा था दिल का। क्लीनिकल डेथ भी हो गई थी, पर चमत्कारिक ढंग डॉ. बोर्जेस ने उन्हें बचा लिया। घर आए तो जिद ठान बैठे कि मेरा बिस्तर स्टडी में ही लगा दो-यहां से गदराता हुआ छितवन दिखाई देता है। छितवन की छांह में उन्होंने आराम किया और धीरे-धीरे पूरी तरह स्वस्थ हो गए।

4 सितंबर, 1997 के रात को भारतीजी जो सोए तो हमेशा के लिए सो गए। उन्होंने अपने हाथों से, बड़े प्यार से कृष्ण से संबंधित इन तीनों वृक्षों को रोपा था। अपनी पूरी ममता देकर सींचा और संवारा था। उन कदंब, फरद और छितवन ने उनके जाने का सोग जिस तरह अपने ऊपर झेला कि मैं खुदपर शर्मिंदा होती रही हूं कि मैं जिंदा कैसे हूं!

जून में बरसात आई। बरसात के एक पखवारे पहले से ही कदंब में गोल-गोल गुठलियों की शक्ल की कलियां दिखाई देने लगती थीं। बारिश के तीन-चार दिन पहले उन गुठलियों पर वासंती आभा लिये सैकड़ों रेशे निकल आते थे और पूरा पेड़ ऐसा सुंदर सज जाता था कि अगर संवेदनाएं गहरी हैं तो कल्पना में कृष्ण की बांसुरी भी सुनाई दे जाए। पर यह क्या! भारतीजी के देहावसान के बाद इस बरसात में पूरे विशाल वृक्ष पर आठ-दस ही फूल खिले। बाकी कलियां यों ही गुठलियों की शक्ल में नीचे गिर गईं। धीरे-धीरे तो वे गुठलियां ‌निकलनी भी कम हो गईं। फूल भी इक्का-दुक्का…। कोई कहता है, हमारे कदंब को नजर लग गई; कोई कहता है, बीमारी है; पर किससे बताऊं कि यह घर है, पर भारतीजी नहीं। कदंब का वृक्ष है, पर फूल नहीं। जगन्नाथजी पर हुलसकर फूल बरसाने का साक्षी वह फरद भी अगले बरस एक तेज आंधी और बरसात में पूरा का पूरा अरअराकर सड़क पर आ गिरा। तोतों को क्या मालूम कि जिन हाथों ने उसे इतने प्यार से लगाया था, उन उंगलियों का और अपनी ओर निहारती आंखों का वियोग नहीं सहन कर पाया और अपना वह रस और लाल-लाल दहकते फूल लिये-लिये चला गया, शायद उनकी खोज में कहीं।

हम इनसानों का रोना – कल्पना और आंसू तो सबसे देखे, पर छितवन भी अपनी हजार-हजार आंखों से कितना रोया-कितना रोया कि उसकी आंखों के आंसू भी सूख गए होंगे, तभी न आठ-दस दिन बाद जब शरत पूर्णिमा आई, तब हमारी इमारत वालों ने देखा कि अरे, इस बार फूल खिलने के बजाय मुरझाने क्यों लगे हैं? खुशबू में कसैलापन क्यों आ गया है ? शायद जड़ में कहीं कीड़े लग गए हैं। मैंने श्रीमती लीला बांदिवडेकर को बताया कि कदंब की तरह यह भी विरह-विगलित है। अगले दो वर्षों में कदंब की तरह ही इसमें भी धीरे-धीरे फूल आने बंद हो गए। कदंब तो फिर भी दो कमरे दूर था। पर यह तो स्टडी में एकदम करीब से उन्हें देखता रहा होगा, इसलिए और भी ज्यादा तड़प उठा होगा। कदंब में कम से कम पत्तियां तो निकलती हैं, पर यह तो धीरे-धीरे सूखने लगा और देखते ही देखते एकदम डुंड हो गया। छत से भी ऊंचा उठा वह विशाल वृक्ष अपनी नंगी शाखाओं को बांहे पसारे ठूंठ बनकर खड़ा था, एकदम सूख गया। बारिश आने वाली है। कभी यह ठूंठ टूटकर गिरा तो बड़ा नुकसान हो सकता है। इसलिए इसे कटवा दिया गया है। जब वह काटा जा रहा था उस समय अचानक बड़ी तेज हवा चलने लगी थी।…अचानक भारतीजी की स्टडी पर लगी जाली टूटकर गिरी और बाहर जाकर जो देखा तो जड़वत हो गई। हवा तेज थी जरूर, पर पेड़ तो बॉलकनी की तरफ लगा था। यह टूटी शाख वर्तुलाकार उड़कर इस खिड़की पर दस्तक देने कैसे आ गई ? यह सच है कि न उससे पहले चली थीं वैसी हवाएं, न बाद में चली हैं। क्या इसीलिए कि इस शाख को उडाक़र लाना था? उसने खिड़की पर दस्तक दी, जाली से टकराई और खिड़की की मुंडेर पर जाकर गिर गई। मेरी आंखें आंसू से लबालब हैं। जानती हूं कि भारतीजी की आत्मा तो अब भी इसी स्टडी में बसती है। क्या शाख की बांहें फैलाकर छितवन का वह वृक्ष उनसे अंतिम विदा लेने आया था-या शायद शिकायत करने आई थी यह शाख कि तुमने हमें लगाया था, आज ये काटे दे रहे हैं। या शायद यह मेरे साथ अपनी पीड़ा बांटने आई थी। उसका स्पर्श प्रति पल अपने साथ महसूस करती, जीती रही हूं, सो जाते-जाते वह वृक्ष अपनी टहनी बढाक़र छूने, दुलराने और बतियाने आया था भारतीजी के पास। बार-बार पूछ रही हूं मुंडेर पर लेटी इस शाख से-मिले वह ? छू सकीं तुम उन्हें ? देख सकीं ? बोल-बतिया सकीं ?… जी हो रहा है इस शाख को एक बार छू लूं और महसूस कर लूं उसे, जिसकी तलाश में वह आई है। साझे का दुःख भोगा है हमने। वह तो जड़ से कटकर मुक्त होकर मिलन के लिए आई थी। मैं हूं कि अभी भी जड़ों से जुड़ी जी रही हूं। पता नहीं, कितना और जीना है उनके बिना …।

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पुष्पा भारती

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