गांव यात्रा
बीते दिनों हमने गांव में एक मकान बनवा लिया, जिसका नाम रखा ‘किताब-घर’। अपने अनुभवों के बूते पर कह सकता हूं कि यहां लोगों का शिक्षा पर भरोसा कमतर हुआ है।
गांव से एक ताल्लुक बचपन से ही रहा है। सात हजार की आबादी के हमारे गांव में दो स्कूल हैं; एक कन्या पाठशाला और दूसरा प्राइमरी स्कूल, जहां अब मिडिल स्कूल की कक्षाएं भी होती हैं। शिक्षा को लेकर मेरे मन में कुछ अतिरिक्त भरोसा रहा है, इसलिए गांव के दोनों स्कूलों से हम शुरू से जुड़े रहे। यह जुडाव़ तब और पुख्ता हुआ, जब पिछले दिनों हमने गांव में एक छोटा सा आधुनिक मकान बनवा लिया, जिसमें एक बडा ़कमरा पुस्तकों के लिए सुरक्षित रखा। गांव के इस घर का नाम भी ‘किताब-घर’ है, जो गांव भर में बड़े गुमान और सराहना से देखा भी जाता है : आखिर दिल्ली, मुंबई या बड़े शहरों में पलायन कर चुके गांव के कितने लोग वापस गांव में इतना खर्चा करके घर बनवाते हैं? उचित तो जमीन खरीदना ही रहता है, जिससे ठसक के साथ कुछ नियमित आमदनी भी होती रहती है।
बहरहाल, मकान बनवाना और उसमें एक बड़े हिस्से में एक लाइब्रेरी जैसी सुविधा उपलब्ध कराना गांव के लोगों को पसंद आया और इस पसंदगी में हमारा एक भरोसा भी बना। मगर गांव में पुस्तकालय चलाने की अपनी चुनौतियां हैं। गांव से जुड़े रहने के कारण मैं कह सकता हूं कि लोगों का शिक्षा पर भरोसा कमतर हुआ है। उनके देख-जाने में शिक्षा से अधिक महत्व मेल-जोल और पहुंच का होता है, जिसके आधार पर लोगों को नौकरियां मिलती हैं। गिनती में शिक्षा पीछे रह जाती है। इसलिए यहां से अधिकतर लोग, जो शहर जाते हैं वे किसी सरकारी सेवा में या उद्योग में नहीं, एक मजदूर या खुद-रोजगार के तौर पर अधिक जाते हैं। कोई-कोई अध्यापक बन जाता है, जैसे कि मेरा मित्र लवली जो नजदीक के कस्बे में अध्यापक है। अध्यापकों की जमात गांव में ‘मास्साब’ के नाम से समादृत रहती है, जो कहीं उनके पेशे की बदलावकारी संभावनाओं का प्रतीक है। लवली के कारण गांव के बच्चों को पुस्तकालय से जुड़ने में मदद हो जाती है। वह नजदीक के एक कस्बे में पढात़ा है, जिसका रास्ता गांव के पास के दूसरे गांव उर्दमी से होकर जाता है। उर्दमी तक जाने की सड़क कच्ची है। उसके बाद पक्की हो जाती है। ‘उर्दमी की आबादी कितनी होगी? मैं उससे पूछता हूं, ‘कोई 700 वोटर तो हैं।’ वह संगीनियत से बताता है। उसको इल्म नहीं है कि उसकी जुबान पर राजनीतिक रंग अनायास चढ़ आया है। मैं उससे एक और सवाल पूछता हूं।
‘पम्मी की बहाली हो गई या वह अभी भी निलंबित है?’
‘हो गई जी, (राज्य शिक्षा) आयोग ने कर दी।’
‘कैसे? वह तो दो वर्ष से निलंबित था।’
‘बस ऐसे ही समझो‧‧‧।’ लवली चुस्की लेकर मुस्कुराता है। इस चुस्की की व्याख्या वाकई मजेदार है, जो पूरे प्रदेश के यथार्थ और चरित्र की कलई खोलती है। इसे कायदे-कानून या तर्कों से नहीं समझा जा सकता है।
पम्मी यानी प्रमोद कई दशक पहले कुछ लाख रुपए देकर अध्यापक बना था। होते-होते वरिष्ठ हो गया, यहां तक कि प्रिंसिपल होने का दावेदार, जो कुछ बरस पहले वह हो भी गया। प्रिंसिपल होने के बाद उसके रंग कुछ और बिगड़े : दिन में शराब पीकर स्कूल जाता, दूसरे अध्यापकों को हड़काता और अपनी कक्षाओं में नहीं जाता। कई तरह की शिकायतें हुई तो प्रबंधन ने उसे निलंबित कर दिया। मामला चलता रहा। बाद में वह शिक्षा आयोग गया, जहां अपने निलंबन के खिलाफ उसने दलील दी कि उसके कनिष्ठ ने प्रबंधन को चार लाख रुपये खिला दिए हैं, इसलिए उसे बकरा बनाया जा रहा है। आयोग ने माना कि यह तो गलत है। लेकिन गलती ठीक कैसे हो? गणेश वहां चार लाख देकर अपना काम करवा रहा है तो हम तुम्हारा काम सीनियरिटी का ख्याल रखते हुए – यहां दो लाख में कर देंगे! बस यही हुआ और पम्मी बाकायदा स्कूल के प्रधानाचार्य के पद पर बहाल हो गया। प्रबंधन उसे फिर निलंबित कर सकता है, केवल 60 दिन के लिए। जब-तब करता है। यह सब चलता रहता है। बस, एक चीज तय है : पढ़ने-पढाऩे से किसी को ताल्लुक नहीं है।
गांव में घूमते हुए मैं आगे बढ़ता हूं।
गुड्डू अपनी हवेली के खुले फाटकों के बीच बैठा है। वह ‘आओजी’ से स्वागत करता है। मना करने पर भी चाय मंगवा लेता है-गांव की अतिरिक्त मीठी चाय। गांव के नजदीक एक चीनी मिल खुल जाने से उसे राख उठाने, आदि के ठेके मिल जाते हैं, यानी माली हालत ठीक है। वह अपने एक-दो अमीर और प्रतिष्ठित लोगों के बारे में बताता है, मुख्यतः अपने खानदान पर गर्व करने के लिए।
इस हवेली की मेरे भीतर एक स्मृति बहुत पहले उसमें डाका पड़ने की है। तब डकैतियां खूब पड़ती थीं।
‘तुम्हारे यहां बहुत पहले जो डाका पडा ़था, क्या कभी डाकुओं की शिनाख्त हुई?’ गांव के बरक्स मेरी स्मृति अजीब तरह से हिचकोले खाने लगती है।
‘सब हो गई थी, सतप्रकाश मास्साब ने डलवाया था।’ उसके खुलासे में बेधड़क तंज है।
मैं चौंकता हूं। अध्यापकों के प्रति गहरे सामूहिक सम्मान भाव का धारक रहा हूं।
‘क्या तब वे अध्यापक हो गए थे?’
‘बिल्कुल थे।’
‘पकड़े नहीं गए?’
‘पकड़े गए थे ‧‧‧ खूब मार पड़ी थी। बाद में छूट गए।’
‘कैसे?’
‘अरे भैया, यह इंडिया है‧‧‧ पकड़े गए, मार खाई फिर ऊपर वालों को दे-दिलाकर छूट गए।’ गुड्डू जैसे पम्मी की आयोग की बात का पूर्वार्ध बता रहा है।
गुड्डू मुझे अपना घर को देखे जाने की ताकीद करता है, जो उसने हाल ही में नवनिर्मित किया है। वह घर गांव क्या, आस-पास के गांव के बीच अपनी तरह का इकलौता होगा, जो मुद्दत से ‘हवेली’ के नाम से जाना जाता है। उसका परकोटा इतना ऊंचा और विशाल है कि एकदम भव्य लगता है : भीतर की तरफ किंचित झुकी हुई उसकी चौड़ी और ऊंची दीवारें, बीच में बडा फाटक, जिसके भीतर घुसते ही अतिरिक्त खुलापन स्वागत में बिछा होता है। मुझे सबसे आकर्षक लगती थी उसकी षटकोनी बैठकी, जो प्रवेश करते ही बाएं हाथ को थी, जहां गुड्डू पिता संग्राम सिंह मित्रों के साथ बैठकी करते थे। आज उस स्मृति को देखा तो धक्का लगा : वहां अनाज से भरी कुछ बोरियां बेढंग से बिखरी पड़ी थी, जैसे अब वह कोई कोई गोदाम हो। गुड्डू की मां की मृत्यु दो बरस पहले हुई, जबकि उन्हें विधवा हुए 40 बरस हो गए होंगे। बहुत गरिमामयी, शालीन महिला। उनका अंतिम बच्चा दो साल का था, जब संग्राम सिंह की हृदयगति रूकने से मृत्यु हुई। इतनी बड़ी हवेली की मालकिन दूसरे किसी से मिलने लायक कहां थी? अभिजात्य ही उसका ओढ़ना-बिछौना और कफस रही।
मैं थोडा बाहर घूम कर आता हूं। मोहल्ले के आधे से ज्यादा घर सुनसान हैं। बुजुर्ग ऊपर चले गए और बच्चे बाहर। अच्छी बात यह हुई कि गांव के बाहर बने प्याऊ पर अब रौनक रहती है। वहां एक ठीक-ठाक सा छोटा-मोटा बाजार आ गया है, जिसमें घर के जरूरी सामान के अलावा लोहा-बजरी-सीमेंट आदि मिल जाते हैं। बस एक समस्या आज खड़ी हुई है : बंदरों की! पता नहीं कहां से आ गए हैं? लेकिन जंगल-जवार में चारों तरफ दिखते हैं। फसल का आधा खाते, नष्ट करते हुए। उन्हें कोई मार नहीं सकता, क्योंकि सब हनुमान जी के वंशज हैं। और तो और, आप कांटेदार बाड़ लगाकर भी अपनी फसल सुरक्षित नहीं कर सकते। हनुमानजी के वंशजों को खून निकल सकता है और यह भक्तों को बर्दाश्त नहीं होगा। इसका कोई समाधान फिलहाल नहीं है। रास्ते पर लाला जयंतीलाल के बेटे ने बताया कि कल तो उसे बंदरों के झुंड में घेर ही लिया था। वह बड़ी मुश्किल से जान बचा सका। किसी को बताने लायक बात नहीं है। लोग हंसते अधिक हैं।
गांव की हर यात्रा हसरतों से शुरू होती है और एक कसक पर जाकर छूटती है।
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ओमा शर्मा