चोटी पर न पहुंचे हुए लोग
मुझ पर आजकल जबरदस्त हीनता का बोझ सवार है। कारण, मैं पहाड़ पर कभी नहीं गई इस बात को छुपाना चाहती थी। पर, जानती हूं कि अब छुप नहीं पाएगी। लोगों को बहुत जल्दी ही इस बात का पता लग जाएगा कि हिंदी की अमुक लेखिका अभी तक पहाड़ पर नहीं गई। वे एक-दूसरे से फुसफुसाते हुए कहेंगे कि तभी तो मैं सोचती थी / सोचता था कि आखिर क्यों बेचारी का लेखन अपेक्षित ऊंचाई तक नहीं पहुंच पाया। इन्होंने पहाड़ों के घुमावदार-पेंचदार रास्तों पर चढ़ने की तकलीफ सही ही नहीं! ढलानों पर फिसलने का खतरा उठाया ही नहीं! कला के जोखिम से रूबरू हुई ही नहीं! और एक-दूसरे से सिर हिला-हिलाकर अफसोस जाहिर करेंगे। वही शॉर्टकट की संस्कृति… तब फिर रचनात्मकता में पहाड़ों-सा वजन और क्षेत्रफल समाता कहां से?
लेकिन आखिर बात क्या हुई? गई क्यों नहीं पहाड़ पर?
बस, यहीं पर मेरी शर्मिंदगी डूब मरने के लिए चुल्लू भर पानी तलाशने लगती है। और लोग हैं कि पीछा छोड़ते ही नहीं। जब-तब आगे-पीछे घेरकर थहाने की कोशिश करते हैं। असलियत उगलवाने कई-कई सूत्रीय कार्यक्रम लागू करने की कोशिश करते हैं-अच्छा, कुछ तो बताइए। क्यों नहीं गईं पहाड़ पर?… अब अगर सच-सच कहूं तो उन्हें विश्वास ही नहीं आएगा। फेयरफैक्स की मारी बुद्धिजीवी सोच को वैसे भी आजकल चारों तरफ रहस्य और गुप्तचरी का ही अंदेशा लगा रहता है, काजियों की बन आई है सो अलग पूरे शहर में!
अंदेशों के साथ-साथ आरोप भी-जैसे मैंने पहाड़ पर न जाकर साहित्य के साथ कोई जबरदस्त विश्वासघात किया हो। कला के जोखिम का सौ-दो सौ किलोग्राम भारोत्तोलन किए बिना साहित्य के अखाड़े में घुसने के लिए सेंध मारी हो। इस तरह उनके दिलों को जबरदस्त ठेस पहुंचाई हो; या फिर, किसी को अपने बारे में कुछ न बताने की और छुपी रूस्तम बने रहने की अस्वस्थ और दूषित परंपराओं को जन्म देती हूं। साहित्यिक प्रदूषण फैलाने की काफी कुछ जिम्मेदारी इस तरह मेरे ऊपर आ जाती है। आखिर मैं क्यों नहीं समझती कि यह मेरे लिए कई दृष्टिकोणों से घातक सिद्ध हो सकता है? और इतनी सारी समस्याओं का कारण? महज मेरा पहाड़ पर न जाना। चली गई होती तो वर्तमान सुधर गया होता, भविष्य संवर गया होता।
इसी संदर्भ में एक शुभचिंतक ने पूछा, ‘फिर आप चोटी पर कैसे पहुंचेंगी?’
मैंने पूछा, ‘पहाड़ की चोटी पर?’
वे बोले, ‘जी नहीं, मेरा मतलब है, कथाकारिता की चोटी पर-यानी चोटी के कथाकारों में कैसे शामिल होंगी ?’
मैंने कहा, ‘चोटी पर वैसे भी जगह की बड़ी किल्लत रहती है। एक-आध लोग ही बमुश्किल खड़े हो पाते हैं और मेरे साथ तो दो-तीन बच्चे और उनके पिता भी रहते हैं न!’
‘आप भी खूब हैं! चोटी पर बच्चों और उनके पिताओं को लेकर थोड़े ही न जाया जाता है। कला और साहित्य तो एक साधना है।’
‘लेकिन मैं भी क्या करूं-इन्हें मैं कोई शौक के मारे थोड़े ही पाले हुए हूं! ये मेरी लाचारियां हैं। मेरी गुजर-बसर करते हैं न! अब साहित्य तो मुझे एक वक्त का नाश्ता तक नहीं दे सकता, स्वाभिमान के साथ।’
‘अरे, आप तो मजाक करती हैं।’
‘मजाक समझिए, तब भी चोटी पर महान साहित्यकार होता है, उसकी कमर पकड़कर वरिष्ठ लटके हुए होते हैं। वरिष्ठों के घुटने से समकालीन और समकालीनों के चारों तरफ युवाओं का जमघट रहता है। इन युवाओं का भी कुरता पकड़े नवोदितों के जत्थे के जत्थे-ऐसा ही होता है। साहित्य का पहाड़ और इस पहाड़ को खोदिए तो एक चुहिया आपको बिराती हुई निकल जाएगी!’
वे मुस्कुराए, ‘आपको शुद्ध भ्रम है। दरअसल चोटी पर पहुंच पाने का तो लुत्फ ही कुछ और होता है।’
‘क्या खाक लुत्फ होता है! हर समय तो डर बना रहता है कि कहीं कोई पीछे से अड़ंगा लगाकर नीचे खाई-खंदक में न गिरा दे। वैसे भी पहाड़ों पर बर्फ और फिसलन बहुत होती है।’
उन्होंने मुसकराकर कहा, ‘छोड़िए भी, अब इस उम्र में भी आपको फिसलने का डर बना हुआ है?’
मुझे तैश आ गया, ‘वाह! क्यों नहीं होगा? शायद आपको मालूम नहीं, फिसलने का उम्र से कोई खास नजदीकी रिश्ता नहीं होता। फिसलते समय कोई खाई-खंदक कहां देखता है! न उम्र की पैमाइश ही करता है फीता लेकर; और फिर जहां बला की फिसलन और ढलान हो, कोई कहां तक पैर संभालेगा?’
‘यह सब छोड़िए, आप मुझे बरगलाने की कोशिश कर रही हैं। सही-सही वजह बताइए।’
‘सही-सही वजह पूछिए तो पहाड़ों पर अब शरीफों के जाने लायक जगह बची ही कहां है? वहां या तो हनीमूनी जोड़े जाते हैं या फिर ऊंट!’
‘ऊंट?’ उन्होंने हैरानी से पूछा।
‘जी हां, आपको नहीं मालूम? और इन ऊंटों के बारे में दो बातें मशहूर हैं। एक तो, ये जब तक पहाड़ पर नहीं चढ़ होते, बहुत बलबलाते हैं और दूसरी, जब पहाड़ पर चढ़ चुकते हैं तो किस करवट बैठेंगे, पता करना बहुत मुश्किल होता है। वैसे ऊंटों की यह पॉलिसी इधर सरकारी, गैर-सरकारी, साहित्यिक, गैर-साहित्यिक-हर क्षेत्र में बहुत पॉपुलर हो रही है- सो यह ‘शो’ तो हम घर बैठे देख-देखकर छके जा रहे हैं… पहाड़ जाने की जहमत क्यों उठाएं? और सबसे बढ़कर बात यह कि साल भर पे गरमियां आती हैं तो छत पर पानी छिड़ककर आम-खरबूजे खाने के लिए या कि दो खच्चरों के बोझ बराबर स्वेटर-कंबल डाटकर पहाड़ों पर जाने के लिए?…।
‘और हां, सुनती हूं, पहाड़ों पर हवा के लिए भी लाइन लगानी पड़ती है। वो क्या तो, पतली-पतली-सी होती है। सांस लेने में भी मुश्किल! और यहां अभी एक हवा भर ही तो, ठंडी-गरम चाहे जैसी हो, बिना लाइन लगाए मिल जाती है। तो जब तक मिलती है तब-तब तो सांस ले ली जाए। आगे की आगे देखी जाएगी।
‘और वैसे भी सर्दियों में मुझे नजला-जुकाम, मुन्ने को टांसिल और उनके पिताजी को छीकें आने लगती हैं। तो इससे तो अच्छा है कि गरमियों में पहाड़ पर जाने की जिद छोड़कर मैं चाइना-सिल्क या फ्रेंच-शिफॉन की साड़ी न खरीद लूं!
‘सुनिए…’ उन्होंने बेसब्री से मेरे धारा-प्रवाह भाषण को रोकते हुए पूछा, ‘पहाड़ों से संबंधित ये सारी बेसिर-पैर की जानकारियां आपको किसने दीं?’
‘क्यों?’ मैंने हैरानी से कहा, ‘मेरे पति ने और किसने!’
‘ओह!… अच्छा-अच्छा, तो आज्ञा दीजिए, अब मैं चलता हूं।’ और फौरन बड़े उत्साह में उठ लिए।
‘अरे! कहां एकाएक?’
‘कुछ नहीं, यों ही’। उन्होंने झिझकते, शरमाते हुए कहा, ‘दरअसल मेरी पत्नी भी कई सालों से पहाड़ों पर चलने के लिए जिद मचाए हुए है।’
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सूर्यबाला