Spirituality

आध्यात्मिक बोध | सदगुरुश्री दयाल (डॉ. स्वामी आनन्द जी) | Spiritual Realization | Sadgurushree Dayal (Dr. Swami Anand Ji)

आध्यात्मिक बोध

शब्द योग मानता है कि सबकुछ अनहद नाद से प्रकट हुआ। जब तुम अपने भीतर प्रवेश करोगे, तो सब कुछ एक क्षण में जान लोगे।

मानव अपनी मृत्यु के अहसास से डर जाता है, सिहर जाता है और बिखर जाता है। भयभीत हो जाता है। लेकिन यह भय तो छद्म है। मिथ्या है। असत्य है। मृत्यु के प्रति मनुष्य की अवधारणा सत्य नहीं है। सच तो ये है कि आपकी मौत संभव ही नहीं है। जिसे आप मृत्यु समझते हो, वह आपका नहीं, सिर्फ एक देह का अवसान है। एक दैहिक प्रकिया का अंत है। आपकी यात्रा का एक अल्प विराम और इस देह का पूर्ण विराम है। पर, इसके बाद का अनुभव स्वयं में अभिराम है, अगर आपने अपने-आप का बोध कर कर लिया है तो।

आपकी देह के जन्म के साथ ही साढ़े तीन लाख नाड़ियां, जो आपकी नाभि से जुड़ी हैं, सक्रिय हो जाती हैं और सप्त चक्र क्रियाशील हो जाते हैं। नाड़ियों को आप नित्य अपने उल्टे कर्म, नकारात्मक चिंतन, क्रोध, लोभ और आवेश से अवरुद्ध करते रहते हो। उसके ऊर्जा के प्रवाह को बाधित कर देते हो और अपनी असीमित क्षमता से अपरिचित रह जाते हो। आपकी भौतिक देह में शक्ति के सात केंद्र हैं। इन्हें आध्यात्मिक मान्यताएं चक्र कहती हैं। मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्त्रार चक्र के ये केंद्र मानव की ऊर्जा को असीमित करने की क्षमता से लबरेज हैं। आपकी ऊर्जा पांच तत्वों और उसकी 25 प्रकृतियों के अनुरूप अपनी देह में क्रियाशील है। मृत्यु के पश्चात एक जीवन यात्रा पूर्ण तो होगी, पर आपका अवसान तो तब भी न हो सकेगा। क्योंकि आप देह नहीं, अदेह हो। अदेह यानी चेतना। सुरत, यानी आत्मा स्वयं में शाश्वत है। चिरंतन है। सनातन है, जो मिट नहीं सकती। चेतना को छोड़िए, यहां तो किसी जड़ की भी मौत भी संभव नहीं है। आप एक जर्रे को, रेत के कण को भी यदि चाहोगे तो भी मिटा न सकोगे। अधिक से अधिक उसका रूप-स्वरूप बदल दोगे। जब आप स्थूल पदार्थ को भी न मार सकोगे तो चेतना को कैसे समाप्त करोगे! मृत्यु तो सिर्फ तन का परिवर्तन है, देह का बदलाव। इससे ज्यादा कुछ नहीं। पर आप तो मृत्यु के नाम से ही घबरा जाते हो। मनुष्य स्वयं से परिचित नहीं है, इसीलिए शोक मनाता है, दुःखी होता है। वह खुद को नहीं जानता, इसीलिए खुदा / प्रभु को भी नही पहचानता।

क्या है शब्द योग

सुरत शब्द योग-जिसे नाम योग भी कहते हैं-मानता है कि सब कुछ अनहद नाद से प्रकट हुआ। आपको अपना, अपने होने का, अपने स्व का, अपने प्रभु का और उस नाद का बोध खो गया है, जो आपका आधार हैं। नाद और शब्द तुम्हारे अंदर हर पल उतरते ही रहते हैं। वे तुम्हारे पास खिंचे चले आते हैं, जैसे तुम उनके केंद्र में हो। और वे तुम्हारे साथ-साथ चलते हैं, मानो तुम ही उनका लक्ष्य हो। पर तुम उन अंदर के महाशब्दों को सुन नहीं पाते, क्योंकि तुम सुनने का प्रयास नहीं करते। कोशिश नहीं करते। तुम्हारा मन तुमको जगत से, और नष्ट होने वाले पदार्थो के चिन्तन में लगाए और उलझाए रखता है। तुम्हारा मन तुम्हें बरगला कर तुम्हें तुम्हारी असली खजाने को पाने की राह में अड़चन डाल कर इस संसार के पत्थरों और धूल-मिट्टी में बहलाए रखता है, जो तुम्हारी हैं ही नहीं। वो तुम्हें इन चमकते कंकड़-पत्थर  को दौलत का आभास दिलाता है। तुम झूठी पद-प्रतिष्ठा और तरक्की,मान और अपमान, जमीन-जायदाद और क्षणिक विषय-वासना जैसी अर्थहीन गतिविधियों से इस कदर जुड़ गए कि अपने अंदर जाकर उन शब्दों को सुनना ही भूल गए, जो तुम्हारा आधार हैं, मूल हैं। इसीलिए तुम्हें अंतर के शब्द, वेद वाणी, अनहद ध्वनि, आकाशवाणी, खुदा की आसमानी आवाजें सुनाई नहीं देती हैं। जब तुम अपने भीतर प्रवेश करोगे, तो सब कुछ एक क्षण में जान लोगे। जैसे जो जन्म से बहरा हो बोल भी नहीं पाता। वह गूंगा नहीं है, बस ध्वनि को नहीं जानता। जब आप अंतर्निहित तरंगों को सुनने का अभ्यास करोगे तो आंतरिक शब्दों से रू-ब-रू होने लगोगे। शब्द व प्रकाश प्रकट होने लगेंगे। तब समझ जाना कि आपकी नींद टूटने की प्रथम  प्रक्रिया अब आरम्भ हुई है। शब्द की ऊर्जा का प्रपात पल-पल बह रहा हैं। नाम की झंकार तुम्हारे इर्द-गिर्द, खनक रही है, थिरक रही है। वो आपको लपेटे हुए हैं। तुमको स्वयं में समेटे हुए है, पर तुम उन्हें नहीं जानते। जैसे वॉय-फॉय की वेव तुम्हारे डिवाइस के चारों ओर घूम रही हो और आपको पासवर्ड पता न हो, तो वह उन लहरों के मध्य रहकर भी कनेक्ट न हो सकेगी। आप जहां भी हो, आप और आपकी आत्मा  सदा-सर्वदा उस महाशब्द का लक्ष्य  है। समूचे ब्रह्मांड का केंद्र है। आजमा कर तो देखो…! श्रवण करके तो देखो…! तुम्हे लगेगा कि वह शब्द वर्तुल में तुम्हारी ओर ही मुखातिब है…। आकृष्ट है। तुम्हें ही सम्बोधित कर रहे हैं। वो तो तुमसे जुड़ना चाहते हैं…। तुम्हें खुद से जोड़ना चाहते हैं…। पर क्या आप उसमें अंगीकार होना चाहते हो?

शब्दयोग उस महानाद की टेक्नॉलजी भी समझता है और महा-आनन्द में सराबोर भी कर देता है। इसलिए भजन में आप अंतःकर्ण, यानी भीतर के कानों से सुनने में ध्यान की तरह सीधे नहीं सुनते। बस, जोर देकर, ऊपर चढ़कर उन महाशब्दों के आने की प्रतीक्षा करते हो। उतरने का इंतजार करते हो। तुम उन शब्दों को आमंत्रित नहीं कर सकते। उन्हें अपने पास बुलाने का कोई विधान नहीं है। वेब डिवाइस के पास आती हैं, डिवाइस चाहे तो भी वेब के पास नहीं पहुंच सकता। बस, डिवाइस को सेटिंग में परिवर्तन करके उपलब्ध रहना है। अपने लॉक, यानी ताले से बाहर निकल कर उन तरंगों को उतरने की अनुमति भर देना है। बस, डिवाइस कनेक्ट हो जाएगा। इसी तरह से वह महानाद ही तुम्हें खींचता है, तुम उन्हें नहीं खींच सकते।

यदि तुम्हें नाम-ध्वनि का रस आने लगे, दोनों आंखों के सामने एक बिंदु पर जुंबिश महसूस होने लगे तो शनैः-शनैः तीसरे तिल का परिचय हो जाएगा। तब तुम भी उस महाशब्द से जुड़ने लगोगे। तीसरा तिल वह है, जहां से तुम इस जगत से आगे की यात्रा आरम्भ करते हो, इस कायनात से आगे संसार की ओर उन्मुख होते हो। वह बिंदु तत्काल दिखाई नहीं देता। और जब दिखता भी है, तो शीघ्र स्थिर नहीं होता। चंचलता का आभास होता रहता है। वह भागता हुआ या घूमता हुआ प्रतीत होता है। वह तो स्थिर है, रुका हुआ है, पर मन उसे अस्थिर महसूस कराता है। वह बिंदु पहले सूक्ष्म / स्याह / काला दिखता है। पर रफ्ता-रफ्ता सुर्ख व श्वेत और उसके बाद विराट और महाविराट हो जाता है। यदि भीतर का रहस्य जानकर, भेद लेकर, युक्ति, यानी तकनीक सीख कर तुम अपना रूहानी सफर शुरू कर दो तो तुम स्वयं में उतर कर अपने मूल को, अपने स्व को उपलब्ध हो जाओगे। मानव से महामानव के रूप में तब्दील हो जाओगे। प्रभु में समा कर प्रभु के सदृश हो जाओगे।

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सदगुरुश्री दयाल (डॉ. स्वामी आनन्द जी)

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